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बात / स्वप्निल श्रीवास्तव

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बात जहाँ से शुरू हुई वहीं पर पड़ी है

इतने दिनों बाद भी वह सड़क पर नहीं आई । ट्रैफ़िक

की लाल बत्ती का ख़तरा अब भी उसे निस्पंद कर रहा है

जब भी वह पाँव बढ़ाती है उसे सायरन सुनाई पड़ता है

वह उल्टे पाँव होंठों तक लौट आती है


आँखों के बारे में क्या कहा जाए

वे चेहरे पर होते हुए भी अंधी भूमिका में हैं

दृश्यों को देखकर गुस्से से लाल नहीं होतीं

जिस्म के अन्दर गहरे धँस जाती हैं


कायर योद्धा लड़ रहे हैं अहिंसा का बैनर थामे

गोया लड़ाई कहीं नहीं होती

युद्ध की जगह घास का मैदान होता है

मवेशी मुँह नीचा किए टहलते रहते हैं शाम-ओ-सुबह


सुबह वैसी ही छपी है आसमान के काग़ज़ पर

उसमें चौंकाने वाली कोई ख़बर नहीं

विशिष्ट व्यक्तियों की दिनचर्याएँ और यात्रा-कार्यक्रम हैं


बात या आँख, पेड़ की त्वचा पर संख्या की तरह खुदी है

यदि सुरक्षित नहीं किए गए पेड़ तो उन्हें भी

कटने वाले दरख़्तों में गिन लिया जाएगा