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नेता (एक) / अक्षय उपाध्याय

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मसान से फैले प्रदेश में
मचान गाड़ नेता अब और
                    बेतुकी नहीं हाँक पा रहे

अब तो पिपरिया के, छोटके के पूछे गए
ककहरा सवालों के जवाब में भी
गाँधी टोपी
भकुआ की तरह बबूर की ओर मुँह किए
                           दाँत चियारती है

वे जो कल तक
शेरवानी की समझ से
बकलोल-से दीखने वाले लोग समझे जाते थे
आज
उन्हें अपनी गरदन पर महसूसते हुए
उनकी
सिर्फ़ आँखें ही नहीं फैलती बल्कि
दिल्ल सुन्न और दिमाग भी डोलता है

'ग़रीबी से फटी गाँड़ का माई-बाप
ससुरा केहू ना हौ' कहता हुआ
जब जोखना
लाठी भांजता
सरपंच की खाँची से
नून-तेल-लकड़ी उठा लाता
और जमा जाता है
दो धौल उनके झबरों को तो
क्या बुरा करता है?

क्यों नहीं बजती हैं दमकल की घंटियाँ
रामकली के पेट में लगी आग से !
यह उसे कौन बताएगा ?
'ई सब सुनके अबकि
फालिज मार गैं सार नेतवा कै'
कह ऊख पेरते हुए दद्दा
सहसा गंभीर हो जाते हैं और
दुआरे रोपे गए पेड़ को बड़े गहरे देखते
फिर लम्बी साँस लेकर
कोल्हू के नट में तारपीन चुआते
और बढ़ने वाली रफ़्तार के लिए ख़ुद को तैयार करते रहते हैं ।