Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 15:07

किसका शहर / सजीव सारथी

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:07, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ठूंस दिया गया हूँ जबरन,
रेल के इस डिब्बे में,
इस ताकीद के साथ -
कि लौट जाओ, जहाँ से आए थे,
यह शहर तुम्हारा नही,

क्या सचमुच ?

उन सर्द रातों में,
जब सो रहे थे तुम,
मैं जाग कर बिछा रहा था सड़क,
और तारकोल का काला धुवाँ,
भर गया था मेरी नाक में,
उस उंची इमारत की,
जोड़ रहा था,
जब ईट-ईट मैं,
उग आया था एक सपना,
छोटे से एक घर का,
मेरी आँखों में भी,
जहाँ मेरी मुनिया
और उसकी माँ को,
भूखे पेट नही सोना पड़ेगा कभी,
उन दिनों, जब सोता था,
उस फुटपाथ पर,
सुनता था फर्राटे से दौड़ती,
तुम्हारी गाड़ियों का शोर,
आज भी गूंजता है जो मेरे कानों में,

फ़िर जब रहता था,
उस तंग सी बस्ती में,
जहाँ करीब से होकर गुजरता था
वो गन्दा नाला,
तो याद आती थी मुझे,
गाँव की वो,
बाढ़ में डूबी फसलें,
और पिता का वो
उदास नाकाम चेहरा,
माँ की वो चिंता भरी ऑंखें .

अगले साल ब्याह है छुटकी का,
और बिट्ट्न को भेजना है बड़े स्कूल में,
मेरा हर राज़ जानता है वो.
मेरे सुख दुःख को अपना मानता है वो,


तुम कौन होते हो फैसला सुनाने वाले,
तनिक उससे भी तो पूछो,
कौन अपना है उसका,
मेरा लहू गिरा है पसीना बन कर
उसके दामन में,
महक मेरी मिटटी की,
बा-खूबी पहचानता है वो