Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 15:08

दोहराव / सजीव सारथी

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:08, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चिथड़े से उड़ते हैं
हवाओं में,
जिस्म टुकड़ों में
रुंधे पड़े हैं,
लाशों की बू आ रही है,
फिज़ा के चेहरे पर
मुर्दनी तारी है,

फलक पर कहीं कोई तारा नहीं,
अंधेरी चादर छिदी पड़ी है,
और टपक रही है लहू की बूंदे,
धरती का दामन सुर्ख हुआ जाता है ,
फिर आदम ने खुल्द में,
किसी जुर्म को अंजाम दिया है,
इस बार,
खून खुदा का बहा है शायद -

सातवें अर्श पर।