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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ - २

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(2)
शार्दूल-विक्रीडित

चोटी है लसती मिले कलस-सी ज्योतिर्मयी मंजुता।
होती है उसमें कला-प्रचुरता स्वाभाविकी स्वच्छता।
नाना साधन, हेतु-भूत बन के हैं सिध्दि देते उसे।
है देवालय के समान गिरि के सर्वांग में दिव्यता॥1॥

शिक्षा का शुचि केन्द्र, शान्त मठ है संसार की शान्ति का।
पूजा का प्रिय पीठ, कान्त थल है विज्ञप्ति के पाठ का।
है ज्ञानार्जन-धाम ओक भव के विज्ञान-विस्तार का।
पाता है गिरि भू-विभूति-चय का, धाता विभा-कीत्तिक का॥।2॥

होता है अभिषेक वारिधार के पीयूष से वारि से।
नाना पादप हैं प्रसून-चय से प्रात: उसे पूजते।
सारी ही नदियाँ सभक्ति बन के होती द्रवीभूत हैं।
गाते हैं गुण सर्व उत्स गिरि का स्नेहाम्बु से सिक्त हो॥3॥

ऐसा है हरिताभ वस्त्रा किसका पुष्पावली से सजा।
नाना कान्ति-निकेत रत्न किसके सर्वांग में हैं लसे।
आभावान असंख्य हीरक जड़ा आलोक के पुंज-सा।
पाया है हिम का किरीट किसने हेमाद्रि-जैसा कहाँ॥4॥

पक्षी रंग-विरंग के विहरते या मंजु हैं बोलते।
क्रीड़ा हैं करते कुरंग कितने, गोवत्स हैं कूदते।
नाना वानर हैं विनोद करते, हैं गर्जते केशरी।
मातंगी-दल के समेत गिरि में मातंग हैं घूमते॥5॥

ऊषा-रागमयी दिशा विहँसती लोकोत्तारा लालिमा।
कान्ता चन्द्रकला कलिन्द्र किरणें रम्यांक राका निशा।
नाना तारक-मालिका छविमयी कादम्बिनी दामिनी।
देती हैं दिवि की विभूति गिरि को दिव्यांग देवांगना॥6॥

गा-गा गीत विहंग-वृन्द दिखला केकी कला नृत्य की।
नाना कीट, पतंग, भृंग करके क्रीड़ा मनोहारिणी।
देते हैं अभिराम-भूत गिरि की सौन्दर्य-मात्राक बढ़ा।
सीधो सुन्दर मंजु पुच्छ मृग के सर्वांग शोभा-भ॥7॥

है कैलाश कहाँ, किसे मिल सका काश्मीर-भू-स्वर्ग-सा।
पाया है कब स्वर्ण-मेरु किसने, देवापगा-सी सरी।
मुक्ता-हंस-निकेत मानस किसे है कान्त देता बना।
कैसे हो न हिमाद्रि उच्च सबसे, क्यों देवतात्मा न हो॥8॥

दे पुष्पादि 'उदार वृत्तिक' तरु की शाखा बताती मिली।
सा निर्झर हैं अजस्र कहते स्नेहार्द्रता मेरु की।
ऊँचे शृंग उठा स्वशीश करते हैं कीत्तिक की घोषणा।
गाती है गुण सर्वदा गिरि-गुहा शब्दायमाना बनी॥9॥

गाते हैं गंधार्व किन्नर कहीं, हैं नाचती अप्सरा।
वीणा है बजती, मृदंग-रव है होता कहीं प्रायश:।
दे-दे दिव्य विभूति व्योम-पथ में हैं देवते घूमते।
ऐसा है गिरि कौन स्वर्ग-सुषमा है प्राप्त होती जिसे॥10॥

(3)
गीत

जो था मनु वंश-विटप का।
वसुधातल में आदिम फल।
उसके लालन-पालन का।
पलना है अचल हिमाचल॥1॥

हो सका बहु सरस जिससे।
भव अनुभव भूतल सारा।
बह सकी प्रथम हिमगिरि में।
वह मानवता-रस-धारा॥2॥

जिसके मधु पर हैं मोहित।
महि विबुध-वृन्द मंजुल अलि।
विकसी हिमाद्रि में ही वह।
वैदिक संस्कृति-कुसुमावलि॥3॥

जिसकी कामदता देखे।
सुर-वृन्द सदैव लुभाया।
मिल सकी हिमालय में ही।
वह सुख-सुरतरु की छाया॥4॥

है कहाँ कान्त कनकाचल।
बहु दिव विभूति विलसित घन।
मुक्तामय मान-सरोवर।
नन्दन-वन जैसा उपवन॥5॥

कमनीय कंठ में पहने।
मंदार मंजुतम माला।
हैं कहाँ विहरती फिरती।
अलका-विलासिनी बाला॥6॥

जिनकी अद्भुत तानों से।
रस की धारा-सी फूटी।
हैं कहाँ सुधा बरसाती।
गा-गाकर विबुध-बधूटी॥7॥

कैलास कहाँ है जिसपर।
है वह विभूति तनवाला।
बन गयी मौलि की जिसके।
सुरसरी मालती-माला॥8॥

है पली अंक में किसके।
वह सिंह-वाहना बाला।
जिसने दानवी दलों को।
मशकों समान मल डाला॥9॥

है कहाँ शान्ति का मन्दिर।
भव - जन - विश्राम - निकेतन।
उड़ सका शिखर पर किसके।
वसुधा-विमुक्ति का केतन॥10॥

जी सकीं देख मुख जिसका।
शुचिता की ऑंखें प्यारेसी।
वे सिध्द कहाँ थे जिनकी।
थीं सकल सिध्दियाँ दासी॥11॥

भर विभु-विभुता-वैभव से।
है कहाँ कुसुम-कुल हँसता।
बहु काल ललित-तम वन के।
है कहाँ वसन्त विलसता॥12॥

वे वन-विभूतियाँ जिनमें।
हैं कलित कलाएँ खिलतीं।
वे दृश्य अलौकिक जिनमें।
है प्रकृति-दिव्यता मिलती॥13॥

किसने है ऐसी पाई।
है कौन मंजुतम इतना।
अब तक भव समझ न पाया।
उसमें रहस्य है कितना॥14॥

विधिक लोकोत्तर कर-लालित।
लौकिक ललामता-सम्बल।
सिर-मौर मेरुओं का है।
अचला मणि-मुकुट हिमाचल॥15॥