(2)
शार्दूल-विक्रीडित
माली के उर की अपार ममता उन्मत्ताता भृंग की।
पेड़ों की छवि-पुंजता रुचिरता छायामयी कुंज की।
पुष्पों की कमनीयता विकचता उत्फुल्लता बेलि की।
देती है खग-वृन्द की मुखरता उद्यान को मंजुता॥1॥
कान्ता कंज-दृगी सरोज-वदना भृंगावली-कुंतला।
सुश्री कोकिल-कंठिनी भुज-लता-लालित्य-आंदोलिता।
पुष्पाभूषण-भूषिता सुरभिता आरक्त बिम्बाधारा।
दूर्वा श्यामल साटिका विलसिता है वाटिका सुन्दरी॥2॥
द्रुतविलम्बित
सहज सुन्दर भूति-निकेत क्यों।
बन सके नर-निर्मित वाटिका।
विपिन में दृग हैं अवलोकते।
प्रकृति की कृति की कमनीयता॥3॥
शार्दूल-विक्रीडित
कोई पा बहुरंग की विविधता आधार पुष्पावली।
कोई है ले लाल फूल लसिता शृंगारिता रंजिता।
क्या हैं सुन्दर नारियाँ विलसती पैन्हे रँगी साड़ियाँ।
या हैं कान्त प्रसून-पुंज-कलिता उद्यान की क्यारियाँ॥4॥
पा आभा दिन में दिनेश-कर से हो-हो सिता से सिता।
ले-ले कान्ति सुधांशु-कान्त-कर से हो दिव्य आभामयी।
पा के वारिद-वृन्द से सरसता वृन्दारकों से छटा।
होती है रस-सिंचिता विलसिता उल्लसिता वाटिका॥5॥
हो आभामय मंद-मंद हँस के फूली लता-व्याज से।
मुक्ता से लसिता तृणावलि मिले हो दिव्य नीलाम्बरा।
ऑंखों को अनुराग-सिक्त, मन को है मुग्ध देती बना।
पैन्हे मंजुल मालिका सुमन की उद्यान की मेदिनी॥6॥
सरिता
(1)
गीत
ताटक
किसे खोजने निकल पड़ी हो।
जाती हो तुम कहाँ चली।
ढली रंगतों में हो किसकी।
तुम्हें छल गया कौन छली॥1॥
क्यों दिन-रात अधीर बनी-सी।
पड़ी धारा पर रहती हो।
दु:सह आपत शीत-वात सब
दिनों किसलिए सहती हो॥2॥
कभी फैलने लगती हो क्यों।
कृश तन कभी दिखाती हो।
अंग-भंग कर-कर क्यों आपे
से बाहर हो जाती हो॥3॥
कौन भीतरी पीड़ाएँ।
लहरें बन ऊपर आती हैं।
क्यों टकराती ही फिरती हैं।
क्यों काँपती दिखाती हैं॥4॥
बहुत दूर जाना है तुमको।
पड़े राह में रोड़े हैं।
हैं सामने खाइयाँ गहरी।
नहीं बखेड़े थोड़े हैं॥5॥
पर तुमको अपनी ही धुन है।
नहीं किसी की सुनती हो।
काँटों में भी सदा फूल तुम।
अपने मन के चुनती हो॥6॥
ऊषा का अवलोक वदन।
किसलिए लाल हो जाती हो।
क्यों टुकड़े-टुकड़े दिनकर की।
किरणों को कर पाती हो॥7॥
क्यों प्रभात की प्रभा देखकर।
उर में उठती है ज्वाला।
क्यों समीर के लगे तुम्हा।
तन पर पड़ता है छाला॥8॥
क्यों यह दिखलाती रहती हो।
भव के सुख-वैभव सा।
दुखिया को दुख ही देते हैं।
उसे नहीं लगते प्यारे॥9॥
सदा तुम्हारी धारा में क्यों।
पड़ती भँवर दिखाती है।
क्या वह जी में पड़ी गाँठ का।
भेद हमें बतलाती है॥10॥
क्यों नीचे-ऊपर होती हो।
गिरती-पड़ती आती हो।
पानी-पानी होकर भी क्यों।
पानी नहीं बचाती हो॥11॥
जीवनमय होने पर भी क्यों।
जीवन-हीन दिखाती हो।
कल-विरहित होकर के कैसे।
कल-कल नाद सुनाती हो॥12॥
उस नीरव निशीथिनी में जब।
सकल धारातल सोता है।
पवनसहित जब सारा नभ-तल।
शब्दहीन-सा होता है॥13॥
तब भी क्रन्दन की ध्वनि क्यों।
कानों में पड़ती रहती है।
कौन व्यथा की कथा तरल-हृदये।
वह किससे कहती है॥14॥
होती हैं साँसतें पंथ में।
जल बन जाता है खारा।
सरिते, इतना अधिक तुम्हें क्यों।
अंक उदधिक का है प्यारा॥15॥
किन्तु देखता हूँ भव में है।
प्रेम-पंथ ऐसा न्यारा।
जिसमें पवि प्रसून होता है।
विधिक बनती है असिधारा॥16॥