Last modified on 3 सितम्बर 2011, at 22:55

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / पंचम सर्ग / पृष्ठ - १

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:55, 3 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |संग्रह=पारिजात …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

दृश्य जगत्
समुद्र
रोला
(1)

वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये।
रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये।
अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया।
किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥

शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई।
ललित लता-तृण मिले परम अनुपम छवि पाई।
विकसित-वदना रही पहन कुसुमावलि-माला।
किसको पाकर धारा हो सकी दिव की बाला॥2॥

ह-भ फल-भार नये नव दल से विलसे।
खड़े विविध तरु-निचय खेलते मृदुल अनिल से।
मिले सरसता-हीन अवनि को किसके द्वारा।
मरु को किसने सदय-हृदय बन दी जल-धारा॥3॥

बीज दाघ का जब निदाघ भव में बोता है।
तपन-ताप से तप्त धारातल जब होता है।
दु:ख-वाष्प तब किसके उर में भर जाता है।
ऊपर उठकर नील नीरधार बन पाता है॥4॥

कौन नीर-धार? वह, जो है जग-जीवन-दाता।
एक-एक रजकरण को जो है सिक्त बनाता।
जिससे गिरि, तर, परम सरस तरुवर बनता है।
अति कमनीय वितान गगन में जो तनता है॥5॥

जब सुन्द्र ने परम कुपित हो वज्र उठाया।
काट-काटकर पक्ष पर्वतों को कलपाया।
परम द्रवित उस काल हृदय किसका हो पाया।
किसने बहुतों को स्वअंक में छिपा बचाया॥6॥

किसने अपनी सुता को बना हरि की दारा।
अयुत-वदन अहि-विष से महि को सदा उबारा।
निम्न-गामिनी नदियों को किसने अपनाया।
सुर-समूह ने सुधा सुधाकर किससे पाया॥7॥

गरल-कंठ बन सके गरल के यदि अनुरागी।
तो हो दग्धा नहीं दयालुता निधिक ने त्यागी।
जलते बड़वानल ने किससे जीवन पाया।
कौन सुधानिधिक-सा वसुधा में सरस दिखाया॥8॥

समुद्र की सामयिक मूर्ति
(2)

जलनिधिक प्रभात होते ही।
है बहुत दिव्य दिखलाता।
अवलोक दिवस को आता।
है फूला नहीं समाता॥1॥

स्वागत-निमित्त दिन-पति के।
है पट पाँवड़े बिछाता।
या रागमयी ऊषा की।
रंगत में है रँग जाता॥2॥

या प्रकृति-सुन्दरी हँसती।
सिन्दूर-भरी है आती।
अपना अनुराग उदधिक के।
अंतर में है भर जाती॥3॥

या रमा समा अभिरामा।
रमणी है रंग दिखाती।
जग निज ललामता-लाली।
आलय में है फैलाती॥4॥

कुछ काल बाद वारिधिक में।
है कनक-कान्ति भर जाती।
उर मध्य लालिमा लसती।
है विभामयी बन पाती॥5॥

दिनमणि सहस्र कर से क्या।
निधिक को है कान्त बनाता।
अनुराग-रँगा अन्तर या।
है दिव्य ज्योति पा जाता॥6॥

इस काल कूल का तरुवर।
है प्रभा-पुंज से भरता।
रवि-किरणों पर मुक्तावलि।
है निखर निछावर करता॥7॥

बालुका विलसकर हँसकर।
है बहुत जगमगा जाती।
मिल किरणावलि से लहरें।
हैं मंद-मंद मुसकाती॥8॥

चट्टानें चमक-चमककर।
चमकीली हैं दिखलाती।
अवलोक वदन दिनमणि का।
हैं अन्तर-ज्योति जगाती॥9॥

इतने में दूर कहीं पर।
कुहरा उठता दिखलाता।
फिर नीले नभ में फिरता।
सित जलद-खंड आ जाता॥10॥

थी जगी अयुत-मुख अहि की।
प्रश्वास-प्रक्रिया सोई।
या किसी जलधिक के रिस का।
यह पूर्व रूप था कोई॥11॥

फिर नील-कलेवर होकर
उसने नीलाम्बर पहना।
बन गया वारिनिधिक-तन का।
दिव-ज्योति-पुंज वर गहना॥12॥

इस काल मध्य नभ में आ।
रवि था चौगुना चमकता।
उठती तरंग-माला में।
था बन बहु दिव्य दमकता॥13॥

दिन ढले अचानक नभ में।
है घन-समूह घिर आता।
है वायुवेग से बहती।
भय भू में है भर जाता॥14॥

हैं विटप विधूनित होते।
है छिपता पुलिन दिखाता।
पत्तों पर बूँद पतन का।
है टपटप नाद सुनाता॥15॥

इस समय कँपाता उर है।
गंभीर सिंधु का गर्जन।
अमितावदात अंतस्तल।
उत्ताकल-तरंगाकुल तन॥16॥

विकराल रूप धारण कर।
उत्पातों से लड़ता है।
या प्रबल प्रभंजन पर वह।
बन प्रबल टूट पड़ता है॥17॥

दिवसान्त देखकर फिर वह।
बनता है कान्त कलेवर।
कर लाभ नीलिमा नभ-सी।
बन रवि-कर से बहु सुन्दर॥18॥

शारद सुनील नभतल ज्यों।
पा ज्योति जगमगाता है।
दामिनी-दमक से जैसे
श्यामल घन छवि पाता है॥19॥

कमनीय कान्ति से त्यों ही।
कुछ काल अलंकृत होकर।
निधिक धामिल है बन जाता।
बहु धाम-पुंज से भर-भर॥20॥

दिव-मण्डन दिनमणि को खो।
क्या वह आहें भरता है।
कर वाष्प-समूह-विसर्जन।
या हृदय-व्यथा हरता है॥21॥

दुख-सुख हैं मिले दिखाते।
महि परिवर्तन-शीला है।
है कौन द्वंद्व से छूटा।
भव की विचित्र लीला है॥22॥

रवि छिपे निशामुख-कर ने।
भव-ग्रंथ-पृष्ठ को उलटा।
संकेत समय का पाकर।
पट प्रकृति-नटी ने पलटा॥23॥