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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - १

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दृश्यजगत्
वसुन्धारा
(1)
प्रकृति-बधूटी केलि-निरत थी काल अंक था कलित हुआ।
तिमिर कलेवर बदल रहा था, लोकालय था ललित हुआ।
ज्योतिर्मण्डित पिंड अनेकों नभ-मंडल में फिरते थे।
सृजन वारिनिधिक-मध्य बुद्बुदों के समूह-से तिरते थे॥1॥

लाख-लाख कोसों में फैले रंग-बिरंगे बहु गोले।
जाते थे छवि-दिव्य-तुला पर कल कौतुक-कर से तोले।
उछल-उछल थे छटा दिखाते कान्तिमयी किरणों को ले।
फिरते थे आलात-चक्र-से विस्फुलिंग छिटकाते थे।
कभी टूटकर हो सहस्रधा नाना लोक बनाते थे॥2॥

लीला-निलय सकल नभतल था नव-नव ज्योति-निकेतन था।
नीहारिका अनन्त करों में दिव-पिंडों का केतन था।
काल अलौकिक कृति-स्वरूपिणी भूतिमयी बहु बालाएँ।
डाल रही थीं कला-कंठ में उडु-अवली की मालाएँ॥3॥

होती थी जिस काल यह क्रिया किसी कल्प में उसी समय।
प्रकृति-अंक में दिखलाई दी वसुधा विपुल विभूति-निलय।
निधिक के लघुतम एक लहर-सी नभ में उसकी सत्ता थी।
परम विशाल विश्व-वट-तरु की वह अतीव लघु पत्ताक थी॥4॥

बहुत दिनों तक तिमिर-पुंज में उसने कई खेल खेले।
कीं कितनी कमनीय कलाएँ कान्तिमयी किरणें ले-ले।
अजब छटा उस काल दिखाती थीं अति दिव्य दिशाएँ बन।
विविध रत्न से खचित हुआ था उनका कनकाभांकित तन॥5॥

बहुत काल तक उसके चारों ओर घोर तम था छाया।
पुंजीभूत तिमिर-दानव-तन में अन्तर्हित थी काया।
जिस दिन तिमिर-पटल का घूँघट गया प्रकृति-कर से टाला।
ज्योति-पुंज ने जिस दिन उसपर था अपना जादू डाला॥6॥

उसी दिव्य वासर को उसकी मिली दिव्यता थी ऐसी।
धीरे-धीरे सकल तारकावलि ने पाई थी जैसी।
हीरक के विलसित गोलक-सी वह उस काल दिखाती थी।
निर्मल नील गगन-तल में निज छटा दिखा छवि पाती थी॥7॥

फिर भी इतनी जलती थी, जल ठहर न उसमें पाता था।
उसके तन को छूते ही वह वाष्प-पुंज बन जाता था।
घूम-घूमकर काले-काले घन आ-आ घहराते थे।
बड़ी-बड़ी बूँदों से उसपर विपुल वारि बरसाते थे॥8॥

किन्तु बात कहते सारा जल छूमन्तर हो जाता था।
तप्त तवा के तोय-बिन्दु-सा अद्भुत दृश्य दिखाता था।
था उन दिनों मरुस्थल से भी नीरस सारा भू-मंडल।
परम अकान्त, अनुर्वर, धू-धू करता, पूरित बहु कश्मल॥9॥
यथा-काल फिर भू के तन में वांछित शीतलता आयी।
धीरे-धीरे सजला सुफला शस्य-श्यामला बन पायी॥10॥

उसके महाविशाल अंक में जलधिक विलसता दिखलाया।
जिसको अगम अगाधा सहस्रों कोसों में फैला पाया।
रत्न-राजि उत्ताकल तरंगें उसको अर्पित करती थीं।
माँग वसुमती-सी देवी की मुक्ताओं से भरती थीं॥11॥

नाना गिरि-समूह से कितने निर्झर थे झर-झर झरते।
दिखा विचित्र दृश्य नयनों को वे थे बहुत चकित करते।
होता था यह ज्ञात, बन गयी छलनी गिरि की काया है।
उससे जल पाताल का निकल धारा सींचने आया है॥12॥

बहुश: सरिताएँ दिखलाईं, मंद-मंद जो बहती थीं।
कर्ण-रसायन कल-कल रव कर मुग्ध बनाती रहती थीं।
वे विस्तृत भू-भाग लाभ कर फूली नहीं समाती थीं।
वसुधा को नाचती, थिरकती, गा-गा गीत रिझाती थीं॥13॥

हरी-भरी तृण-राजि मिल गये बनी हरितवसना बाला।
विपिनावलि से हुए भूषिता पाई उसने वन-माला।
नभ-तल-चुम्बी फल-दल-शोभी विविध पादपों के पाये।
विपुल पुलकिता हुई मेदिनी लतिकाओं के लहराये॥14॥

वह जिस काल त्रिकलोक-रंजिनी कुसुमावलि पाकर विलसी।
रंग-बिरंगी कलिकाओं को खिलते देख गयी खिल-सी।
पहनी उसने कलित कण्ठ में जब सुमनों की मालाएँ।
उसकी छटा देखने आयीं सारी सुरपुर-बालाएँ॥15॥

जिस दिन जल के जन्तु जन्म ले कलित केलि-रत दिखलाये।
जिस दिन गीत मछलियों के गौरव के साथ गये गाये।
जिस दिन जल के जीवों ने जगती-तल की रंगत बदली।
उसी दिवस से हुई विकसिता सजीवता की कान्त कली॥16॥

कभी नाचते, कभी कहीं करते कलोल पाये जाते।
कभी फुदकते, कभी बोलते, कभी कुतरकर कुछ खाते।
कभी विटप-डाली पर बैठे राग मनोहर थे गाते।
कभी विहंगम रंग-रंग के नभ में उड़ते दिखलाते॥17॥

वनचारी अनेक बन-बनकर वन में थे विहार करते।
गिरि की गोद बड़े गौरव से सा गिरिवासी भरते।
इने-गिने थे कहीं, कहीं पर बहुधा तन से तन छिलते।
जल में, थल में, जहाँ देखिये वहाँ जीव अब थे मिलते॥18॥

रचना हुए सकल जीवों की एक मूर्ति सम्मुख आयी।
अपने साथ अलौकिक प्रतिभा जो भूतल में थी लाई।
था कपाल उसका जगती-तल के कमाल तरु का थाला।
उसका हृदय मनोज्ञ भावना सरस सुधा का था प्यारेला॥19॥

उसने परम रुचिर रचना कर भू को स्वर्ग बनाया है।
अमरावती-समान मनोहर सुन्दर नगर बसाया है।
है उसका साहस असीम उसकी करतूत निराली है।
वसुधा-तल-वैभव-ताला की उसके कर में ताली है॥20॥