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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ५

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थीं कान्त क्यारियाँ फैली।
थे उनमें सुमन विलसते।
पहने परिधन मनोहर।
वे मंद-मंद थे हँसते।
था उनका रंग निराला॥3॥

उनके समीप जा-जाकर।
थी कभी मुग्ध हो जाती।
अवलोक कभी मुसकाना।
थी फूली नहीं समाती।
मन बनता था मतवाला॥4॥

थी कभी चूमती उनको।
थी कभी बलाएँ लेती।
थी कभी उमगकर उनपर।
निज रीझ वार थी देती।
बन-बन सुरपुर-तरु-थाला॥5॥

पूछती कभी वह उनसे।
तुम क्यों हो हँसनेवाले।
जन-जन के मन नयनों में।
तुम क्यों हो बसनेवाले।
क्यों मुझपर जादू डाला॥6॥

फिर कहती, समझ गयी मैं।
तुम हो ढंगों में ढाले।
हो मस्त रंग में अपने।
हो सुन्दर भोले-भाले।
है भाव तुम्हारा आला॥7॥

फिर क्यों न सिरों पर चढ़ते।
औ' हार गले का बनते।
तो प्यारे न होता इतना।
जो नहीं महँक में सनते।
गुण ही है गौरववाला॥8॥

फल कैसे तरुवर पाते।
छवि क्यों मिलती औरों को।
तुम अगर नहीं होते तो।
तितलियों चपल भौंरों को।
पड़ जाता रस का लाला॥9॥

क्यों दिशा महँकती मिलती।
क्यों वायु सुरभि पा जाती।
क्यों कंठ विहग का खुलता।
क्यों लता कान्त हो पाती।
क्यों महि बनती रस-शाला॥10॥

हैं मुझे लुभाते खगरव।
हैं मत्त मयूर नचाते।
मधु-ऋतु के ह-भ तरु।
हैं मुझे विमुग्ध बनाते।
है मन हरती घन-माला॥11॥
हैं ललचाती लतिकाएँ।

लहरें उठ सरस सरों में।
हैं ता बहुत रिझाते।
है जिनके कान्त करों में।
नभतल का कुंजी-ताला॥12॥

पर तुम्हें देखकर जितना।
है चित्त प्रफुल्लित होता।
जो प्रेम-बीज मानस से।
है भाव तुम्हारा बोता।
वह है निजता में ढाला॥13॥

इसलिए कौन है तुम-सा।
जिसको जी सदा सराहे।
सब काल निछावर हो-हो।
चौगुनी चाह से चाहे।
कम गया न देखा-भाला॥14॥

(10)
 
भर धूल सब दिशाओं में।
उसमें ऑंधी आती है।
छा जाता है ऍंधिकयाला।
थरथर कँपती छाती है॥1॥

ऑंखें रजमय होती हैं।
हा-हा-ध्वनि सुन पड़ती है।
धुन उठते हैं कोमल दल।
तरु-सुमनावलि झड़ती है॥2॥

वह कभी मरुस्थल-जैसा।
है रस-विहीन बन जाता।
बालुका-पुंज रूखापन।
है नीरस उसे बताता॥3॥

उसको तमारि की आभा।
यद्यपि है कान्त बनाती।
पर बिना सरसता वह भी।
है अधिक तप्त कर पाती॥4॥

वह कभी वारिनिधिक-जैसा।
है गर्जन करता रहता।
उत्ताकल तरंगाकुल हो।
फेनिल बन-बन है बहता॥5॥

हो तरल सरल कोमलतम।
है पवि पविता का पाता।
वह सुधा-विधायक होते।
है बहुविध गरल-विधाता॥6॥

है दुरारोह गिरिवर-सा।
अति दुर्गम गह्नर-पूरित।
नाना विभीषिका-आकर।
विधिक सरल विधन विदूरित॥7॥

है तदपि उच्च वैसा ही।
वैसा ही बहु छविशाली।
वैसा ही गुरुता-गर्वित।
वैसा ही मणिगण-माली॥8॥