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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - ११

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कौन
(22)

चाल चलते रहते हैं लोग।
चाह मैली धुलती ही नहीं।
खुटाई रग-रग में है भरी।
गाँठ दिल की खुलती ही नहीं॥1॥

न जाने क्या इसको हो गया।
फूल-जैसा खिलता ही नहीं।
खटकता रहता है दिन-रात।
दिल किसी से मिलता ही नहीं॥2॥

कम नहीं ठहराया यह गया।
पर ठहर पाया भूल न कहीं।
लाग किससे इसको हो गयी।
लगाये दिल लगता ही नहीं॥3॥

है सदा जहर उगलना काम।
कसर किसकी रहती है मौन।
गले मिलने की क्यों हो चाह।
खोलकर दिल मिलता है कौन॥4॥

स्वार्थी संसार
(23)

सुन लें बातें जिस-तिसकी।
कब किसने मानी किसकी॥1॥

है यही चाहती जगती।
वह हो जिसको माने मन।
औरों की इसके बदले।
नप जाय भले ही गरदन।
है उसे न परवा इसकी॥2॥

है चाह स्वार्थ में डूबी।
है उसे स्वार्थ ही प्यारा।
वह तो मतलब गाँठेगी।
कोई मिल गये सहारा।
अमृत हो चाहे ह्निसकी॥3॥

फूलों से कोमल दिल पर।
लगती सदमों की छड़ियाँ।
कब भला देख पाती हैं।
औरों के दुख की घड़ियाँ।
पथराई ऑंखें रिस की॥4॥

तब उतर गये लाखों सिर।
जब चलीं सितम-तलवारें।
बह गईं लहू की नदियाँ।
जब हुईं करारी वारें।
पर सुनी गयी कब सिसकी॥5॥

हैं मार डालती उनको।
हैं जिन्हें नेकियाँ कहते।
लेती हैं जानें उनकी।
जो नहीं साँसतें सहते।
ऐंठे हैं गाँठें बिस की॥6॥

कुल मेल जोल पर इसका।
है रंग चढ़ा दिखलाता।
मतलब को धीरे-धीरे।
सामने देखकर आता।
कब नहीं मुरौअत खिसकी॥7॥

कैसे वह यह सोचेगा।
है अपना या बे-गाना।
काँटा निकाल देना है।
ढूँढ़ेगा क्यों न बहाना।
चढ़ गईं भवें हैं जिसकी॥8॥

दिल के फफोले
(24)

क्यों टूट नहीं पाती हैं।
क्यों कड़ी पड़ गईं कड़ियाँ।
क्यों नहीं कट सकी बेड़ी।
क्यों खुलीं नहीं हथकड़ियाँ॥1॥

क्यों गड़-गड़ हैं दुख देती।
सुख-पाँवों में कंकड़ियाँ।
क्यों हैं बेतरह जलाती।
नभ-मंडल की फुलझड़ियाँ॥2॥

क्यों बिगड़ी ही रहती हैं।
मे घर की सब घड़ियाँ।
क्यों काट-काट हित-राहें।
ए बनती हैं लोमड़ियाँ॥3॥

क्यों बहुत तंग करती हैं।
मुझको कितनी खोपड़ियाँ।
क्या नहीं देख पाती है।
मेरी टूटी झोंपड़ियाँ॥4॥

हैं ओस-बिन्दु टपकाती।
क्या कमलों की पंखड़ियाँ।
ये हैं ऑंसू की बूँदें।
या हैं मोती की लड़ियाँ॥5॥

किसलिए छिला दिल मेरा।
क्यों लग जाती हैं छड़ियाँ।
क्यों बीत नहीं पाती हैं।
रोती रातों की घड़ियाँ॥6॥

मनो मोह
(25)

अब उर में किसलिए वह घटा नहीं उमड़ती आती।
सरस-सरस करके जो बहुधा मोती बरसा पाती।
वे मोती जिनसे बनती थी गिरा-कंठ की माला।
जिन्हें उक्ति मंजुल सीपी ने कांत अंक में पाला॥1॥

अब मानस में नहीं विलसते भाव-कंज वे फूले।
जिन पर रहते थे मिलिन्द-सम मधुलोलुप जन भूले।
बार-बार लीलाएँ दिखला नहीं विलस बल खाती।
अब भावुकता कल्पलता-सी कभी नहीं लहराती॥2॥