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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / अष्टम सर्ग / पृष्ठ - १२

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मन-नन्दन-वन अहह अब कहाँ वह प्रसून है पाता।
जिसका सौरभ सुरतरु सुमनों-सा था मुग्ध बनाता।
उदधिक-तरंगों-जैसी अब तो उठतीं नहीं तरंगें।
वैसी ही उल्लासमयी अब बनतीं नहीं उमंगें॥3॥

हो पुरहूत-चाप आरंजित जैसा रंजन करता।
जैसे उसमें रंग कान्त कर से है दिनकर भरता।
वैसी ही रंजिनी किसलिए नहीं कल्पना होती।
क्यों अनुरंजन-बीज अब नहीं कृति अवनी में बोती॥4॥

सरस विचार-वसंत क्यों नहीं बहु कमनीय बनाता।
हृदय-विपिन किसलिए नहीं अब वैसा वैभव पाता।
कैसे इस थोड़े जीवन में पडे सुखों के लाले।
रस-विहीन किसलिए बन गये मे रस के प्यारेले॥5॥

दुखिया के दुखड़े
(26)

बुलाये नींद नहीं आती।
रात-भर रहती हूँ जगती।
किसी से ऑंख लगाये क्यों।
लगाये ऑंख नहीं लगती॥1॥

रंग अपना बिगाड़कर क्यों।
रंग में उसके रँगती है।
लग नहीं जो लग पाता है।
लगन क्यों उससे लगती है॥2॥

निछावर क्यों होवें उसपर।
प्यारे करना उससे कैसा?
दूस के जी को जिसने।
नहीं समझा निज जी-जैसा॥3॥

किसलिए उसके लिए अबस।
कलपता दुख सहता है जी।
चुरा करके मे जी को।
जो चुराता रहता है जी॥4॥

राह पर कभी न जो आया।
निहारें क्यों उसकी राहें।
हमें जो नहीं चाहता है।
चाहतें क्यों उसको चाहें॥5॥

भला उससे कैसे बनती।
बहुत जो बात बनाता है।
बसे वह कभी न ऑंखों में।
सदा जो ऑंख बचाता है॥6॥

याद कर किसी मनचले को।
न ऑंखों से ऑंसू बरसें।
तरस जो कभी नहीं खाता।
न उसके तरसाये तरसें॥7॥

मतलबी दुनिया होती है।
कराहें क्यों भर-भर ऑंखें।
प्यारे से प्यारे नहीं होता।
न दिल को दिल से हैं राहें॥8॥

पते की बात
(27)

मसलते हुए कलेजे से।
मसलते नहीं कलेजे जब।
तब किसी के दिखलाने को।
निकाले गये कलेजे कब॥1॥

राह दिल से ही है दिल को।
प्यारे ही प्यारे कराता है।
लगन ही लगन लगाती है।
जोड़ता नाता नाता है॥2॥

ऊबते की आहें
(28)

जो जी की कली खिला दे।
हैं भाव न उठते वैसे।
जब हँसी नहीं आती है।
तब हँसें तो हँसें कैसे॥1॥

ऑंखों में जो बस पाती।
सूखे न कभी वह क्यारी।
जिसमें थे फूल फबीले।
क्यों उजड़े वह फुलवारी॥2॥

क्यों उनको हवा उड़ाये।
फूटे न कभी उनका दल।
थे सरस बनाते सबको।
रस बरस-बरस जो बादल॥3॥

थे जिसे देख रीझे ही।
रहते थे जिनके ता।
उन प्यारे-भरी ऑंखों को।
किसलिए चाँदनी मा॥4॥

क्यों रहा नहीं वह अपना।
जो ऑंखों में बस पाता।
किसलिए आग वह बोवे।
जो चाँद सुधा बरसाता॥5॥

वे बनें पराये क्यों जो।
सब दिन अपने कहलाये।
कैसे तो हवा न बिगड़े।
जो हवा हवा बतलाये॥6॥

जिसको मैंने सींचा था।
जो था मीठे फल लाया।
अब वही आम का पौधा।
कैसे बबूल बन पाया॥7॥