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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ४

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अप्रतिहत - गति - अधिकारी।
निज वेग-वारि-निधिक-मज्जित।
नभ-जल-थल-यान अनेकों।
अति आरंजित बहु सज्जित॥21॥

जब उड़ते तिरते चलते।
किसको न चकित थे करते।
श्रुतिमधुर मनोहर मंजुल।
रव थे दिगंत में भरते॥22॥

अवलोक अमरता-आनन।
था चित्त उल्लसित होता।
सहजात निरुजता का बल।
था बीज श्रेय का बोता॥23॥

आनन्द-तरंगें उर में।
थीं शोक-विमुक्ति उठाती।
चिन्ता-विहीनता मन को।
थी वारिज विकच बनाती॥24॥

हैं राग-रंग की उठती।
किस जगह अपूर्व तरंगें।
हैं कहाँ उमड़ती आती।
बादलों समान उमंगें॥25॥

बहु हास-विलास कहाँ पर।
है निज उल्लास दिखाता।
आमोद-प्रमोद कहाँ आ।
परियों का परा जमाता॥26॥

कर कान्त कलाएँ कितनी।
है मंद-मंद मुसकाती।
किस जगह देव-बालाएँ।
हैं दिव-दिव्यता दिखाती॥27॥

भर पूत भावनाओं से।
आनन्द मनाती खिलती।
किस जगह देवताओं की।
हैं दिव्य मूर्तियाँ मिलती॥28॥

हैं जहाँ न द्वन्द्व सताते।
है जहाँ दुख विमुख रहता।
क्यों वहाँ न रस रह पाता।
है जहाँ सुधारस बहता॥29॥

लौकिक होके सब किसकी।
कह सके अलौकिक सत्ता।
अनुपम मन-वचन-अगोचर।
है अमरावती-महत्ता॥30॥

नन्दन-वन
(6)

विविध रंग के विटप खड़े थे ऊँचा शीश उठाये।
पहने प्रिय परिधन मनोहर नाना वेश बनाये।
लाल-लाल दल लसित सकल तरु बड़े ललित थे लगते।
ललकित लोचन-चय को थे अनुराग-राग में रँगते॥1॥

हरित दलों वाले पादप थे जी को हरा बनाते।
याद दिलाकर श्यामल-तन की मोहन मंत्र जगाते।
पीला था नीला बन जाता, नीला बनता पीला।
रंग-बिरंगे तरुओं की थी रंग-बिरंगी लीला॥2॥

ह-भ सर्वदा दिखाते, सदा रहे फल लाते।
सुन्दर सुरभित सुमनावलि से वे थे गौरव पाते।
छवि विलोक कुसुमाकर इतना अधिक रीझ जाता है।
जिससे उनका साथ कभी वह त्याग नहीं पाता है॥3॥

कितने हैं कल-गान सुनाते, कितने वाद्य बजाते।
कितने पवन साथ क्रीड़ा कर कौतुक हैं दिखलाते।
कितने चमक-चमक बनते हैं ज्योति-पुंज के पुतले।
कितने प्रकृति-अंक के कहलाते हैं बालक तुतले॥4॥

कभी डालियाँ उनकी ऐसे प्रिय फल हैं टपकाती।
जिनको चख बरसों अमरों को भूख नहीं लग पाती।
उनके गि प्रसून गले का हार सदा बनते हैं।
ले-ले विमल वारि की बूँदें वे मोती जनते हैं॥5॥

लता लहलहाती ललामता मुखडे क़ी है लाली।
अपने पास लोक-मोहन की रखती है प्रिय ताली।
सदा प्रफुल्ल बनी रहती है, कभी नहीं कुम्हलाती।
उसकी कलित कीत्तिक सब दिन सुर-ललनाएँ हैं गाती॥6॥

उसकी लचक लोच कोमलता है कमाल कर देती।
मचल-मचलकर उसका हिलना है मन छीने लेती।
लपटी देख उसे तरुवर से सुरपुर की बालाएँ।
तल्लीनता कण्ठ की बनती हैं मंजुल मालाएँ॥7॥

सुमनस नन्दन-वन-सुमनों की है महिमा मनहारी।
कमनीयता मधुरता उनकी है त्रिकभुवन से न्यारी।
किसी समय जब सुन्दरता का है प्रसंग छिड़ जाता।
सबसे पहले नाम सुमन का तब मुख पर है आता॥8॥

धारा-कुसुम-कुल के देखे जब हुई धारणा ऐसी।
तब सोचे, नन्दन-वन की कुसुमावलि होगी कैसी।
उनका रूप देख करके है रूप रूप पा जाता।
उनकी छाया में 'वसुन्धारा-कुसुम' कान्ति है पाता॥9॥

तरह-तरह के कुसुमों की हैं अमित क्यारियाँ लसती।
निज सजधाज-सम्मुख जो अवनी-सजधाज पर हैं हँसती।
किसी कुसुम का अलबेलापन है बहु मुग्ध बनाता।
किसी कुसुम की कलित रंगतों में है मन रँग जाता॥10॥