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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / दशम सर्ग / पृष्ठ - ८

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क्या इनमें से कोई भी सर्वोत्ताम तारा।
स्वर्ग नाम से जा सकता है नहीं पुकारा।
हैं तारक के सिवा सौर-मंडल कितने ही।
क्या हैं बहु विख्यात अलौकिक स्वर्ग न वे ही॥6॥

क्या न सौर-मंडल हमलोगों का है अनुपम।
क्या न हमा सूर्यदेव हैं प्रकृत दिव्यतम।
रविमंडल विस्तृत वसुधा से बहुत बड़ा है।
जो अवनी है मटर तो द्युमणि-बिम्ब घड़ा है॥7॥

अग्नि-शरीरी वृन्दारक हैं माने जाते।
तरणि-बिम्ब-वासी भी हैं आग्नेय कहाते।
हैं सुरगुरु विधु सहित सौर-मंडल में रहते।
क्या होगा अयथार्थ उसे जो दिव हैं कहते॥8॥

बुध्ददेव में है अनात्मवादिता दिखाती।
ईश-विषय में नहीं जीभ उनकी खुल पाती।
पर वे भी हैं स्वर्गलोक-सत्ता बतलाते।
जैन-धर्म के ग्रंथ स्वर्गगुणगण हैं गाते॥9॥

हैं बिहिश्त के दिव्य गान जनदश्त सुनाते।
स्वर्ग-दृश्य देखे मूसा-दृग हैं खुल जाते।
ईसा हैं स्वर्गीय पिता के पुत्रा कहाते।
पैगम्बर जन्नत-पैगामों को हैं लाते॥10॥

फिर कैसे यह कहें स्वर्ग-संबंधी बातें।
हैं झूठी, हैं गढ़ी, हैं तिमिर-पूरित रातें।
मरने पर मानव-तन हैं रज में मिल जाता।
किसी दूसरी जगह नहीं है जाता-आता॥11॥

जा करके परलोक पलटता कौन दिखाया।
है उसका वह पंथ जन जिसे खोज न पाया।
इसीलिए परलोक स्वर्ग आदिक की बातें।
जँचतीं नहीं, जान पड़ती हैं उतरी ताँतें॥12॥

हैं अनात्मवादिता इन विचारों में पाते।
ज्ञान-नयन किसलिए नहीं हैं खोले जाते।
है शरीर से भिन्न 'जीव' यह कभी न भूले।
क्यों अबोध लोहा न बोध पारस को छू ले॥13॥

करके तन का त्याग कहाँ है आत्मा जाती।
यह जिज्ञासा विबुधो है यही बताती।
कर्मभूमि में जीव कर्म का फल पाता है।
उच्च कर्म कर उच्च लोक में वह जाता है॥14॥

विबुधों का वर बोध अबुधता का बाधक है।
यह विचार भी स्वर्गसिध्दि का ही साधक है।
तर्क-वितर्क विवाद और है बहुत अल्पमत।
स्वर्गलोक-अस्तित्व है विपुल बुध-जन-सम्मत॥15॥

शार्दूल-विक्रीडित
(10)

है ऐरावत-सा गजेन्द्र न कहीं, है कौन देवेन्द्र-सा।
है कान्ता न शची समान अपरा देवापगा है कहाँ।
श्री जैसी गिरिजा गिरा सम नहीं देखी कहीं देवियाँ।
पाई कल्पलतोपमा न लतिका, है स्वर्ग ही स्वर्ग-सा॥1॥

शोभा-संकलिता नितान्त ललिता कान्ता कलालंकृता।
लीला-लोल सदैव यौवनवती सद्वेश-वस्त्राकवृता।
नाना गौरव-गर्विता गुणमयी उल्लासिता संस्कृता।
होती है दिव-दिव्यता-विलसिता स्वर्गांगना सुन्दरी॥2॥

शुध्दा सिध्दि-विधायिनी अमरता आधारिता निर्जरा।
सारी आधिक-उपाधिक-व्याधिक-रहिता बाधादि से वर्जिता।
कान्ता कान्ति-निकेतनातिसरसा दिव्या सुधासिंचिता।
नाना भूति विभूति मूर्ति महती है स्वर्ग स्वर्गीयता॥3॥

जो होती न विराजमान उसमें दिव्यांग देवांगना।
जो देते न उसे प्रभूत विभुता देवेश या देवते।
नाना दिव्य गुणावली-सदन जो होती नहीं स्वर्गभू।
तो पाती न महान भूति महती होती महत्ता नहीं॥4॥

होते म्लान नहीं प्रसून, रहते उत्फुल्ल हैं सर्वदा।
पाके दिव्य हरीतिमा विलसती है कान्त वृक्षावली।
पत्तो हैं परिणाम रम्य फल हैं होते सुधा से भ।
है उद्यान न अन्य, स्वर्ग-अवनी के नन्दनोद्यान-सा॥5॥

जो हो स्वथ्य शरीर, भाग्य जगता, पद्मासना की कृपा।
जो हो पुत्रा विनीत, बुध्दि विमला, हो बंधु में बंधुता।
जो हो मानवता विवेक-सफला, हों सात्तिवकी वृत्तिकयाँ।
हो कान्ता मृदुभाषिणी अनुगता तो स्वर्ग है सद्म ही॥6॥

होती है विकरालता जगत की जाते जहाँ कम्पिता।
आता काल नहीं समीप जिसके आरक्त ऑंखें किये।
होता है भय आप भीत जिसकी निर्भीकता भूति से।
जा पाते यमदूत हैं न जिसमें है स्वर्ग-सा स्वर्ग ही॥7॥

होता क्रन्दन है नहीं, न मिलता है आत्ता कोई कहीं।
हाहाकार हुआ कभी न, उसने आहें सुनीं भी नहीं।
देखा दृश्य न मृत्यु का, न दव से दग्धाक विलोकी चिता।
है आनन्द-निधन स्वर्ग-विभुता उत्फुल्लता-मूर्ति है॥8॥

गाती है वह गीत, पूत जिससे होती मनोवृत्तिक है।
लेती है वह तान रीझ जिससे है रीझ जाती स्वयं।
ऐसी है कलकंठता कलित जो है मोहती विश्व को।
है संगीत सजीव मूर्ति दिव की लोकोत्तारा अप्सरा॥9॥

सारी मोहन-मंत्र-सिध्दि स्वर में, आलाप में मुग्धता।
तालों में लय में महामधुरता, शब्दावली में सुधा।
भावों में वर भावना सरसता उत्कंठता कंठ में।
देती है भर भूतप्रीतिध्वनि में गंधार्व गंधार्वता॥10॥