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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / एकादश सर्ग / पृष्ठ - ३

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(5)
कर्म का मर्म
(1)

फूल काँटों को करता है।
संग को मोम बनाता है।
बालुकामयी मरुधारा में।
सुरसरी-सलिल बहाता है॥1॥

जहाँ पड़ जाता है सूखा।
वहाँ पानी बरसाता है।
धूल-मिट्टी में कितने ही।
अनूठे फल उपजाता है॥2॥

दूर करके पेचीलापन।
झमेलों से बच जाता है।
गुत्थियाँ खोल-खोलकर वह।
उलझनों को सुलझाता है॥3॥

बखेडे पास नहीं आते।
बला का गला दबाता है।
दहल सिर पर सवार होकर।
उसे नीचा दिखलाता है॥4॥

भूल की भूल-भुलैयों में।
पड़ गये तुरत सँभलता है।
राह में रोड़े हों तो हों।
पाँव उसका कब टलता है॥5॥

चाहता है जो कुछ करना।
उसे वह कर दिखलाता है।
सामने हो पहाड़ तो क्या।
धूल में उसे मिलाता है॥6॥

सामने आ रुकावटें सब।
उसे हैं रोक नहीं पाती।
देख उसको चालें चलते।
आप वे हैं चकरा जाती॥7॥

बहुत ही साहस है उसमें।
क्या नहीं वह कर पाता है।
फन पकड़ता है साँपों का।
सिंह को डाँट बताता है॥8॥

बड़ी करतूतों वाला है।
सदा सब कुछ कर लेता है।
परस पारस से लोहे को।
'कर्म' सोना कर देता है॥9॥

(2)

चारु चिन्तामणि जैसा है।
क्यों नहीं चिन्तित हित करता।
मिले नर-रत्न गृहों को वह।
रुचिर रत्नों से है भरता॥1॥

उसी का अनुपम रस पाकर।
रसा कहलाई सरसा है।
सब सुखों का वह साधन है।
कामप्रद कामधेनु-सा है॥2॥

देखकर उसकी तत्परता।
भवानी भव कर जाती है।
दान कर उसको वर विद्या।
गिरा गौरवित बनाती है॥3॥

देखकर उसका सत्याग्रह।
लोक-पालक घबराते हैं।
झूलते विधिक हैं विधिक अपनी।
रुद्र शंकर बन जाते हैं॥4॥

परम आदर कर जलधारा।
सदा उसका पग है धोती।
दामिनी दीप दिखा, उस पर।
बरसता है बादल मोती॥5॥

दिवा दमकाता है, रजनी।
उसे रंजित कर छिकती है।
देख विधु हँसता है, उसपर।
चाँदनी सुधा छिड़कती है॥6॥

दिव उसे दिव्य बनाता है।
तारकाएँ दम भरती हैं।
देखकर उसकी कृतियों को।
दिशाएँ बिहँसा करती हैं॥7॥

रमा के कर से लालित हो।
क्या नहीं ललके लेता है।
कल्पतरु-जैसा कामद बन।
'कर्म' वांछित फल देता है॥8॥

(3)

बबूलों को बोकर किसने।
आम के अनुपम फल पाये।
लगे तब कंज मंजु कैसे।
फूल जब सेमल के भाये॥1॥

डरे तब जल जाने से क्यों।
आग से जब कोई खेले।
बाल बिनने से क्यों काँपे।
जब बलाएँ सिर पर ले ले॥2॥

गात चन्दन से चर्चित हो।
चाँदनी का सुख पाता है।
क्यों न वह छाया में बैठे।
धूप में जो उकताता है॥3॥