चित्त इतना हो जाय दयार्द्र।
दु:ख औरों का देख सके न।
अगम भवहित का पंथ विलोक।
पाँव पौरुष का कभी थके न॥5॥
न ममता छले न मोहे मोह।
असंयम सके हृदय को छू न।
मिले परमार्थ-शंभु का शीश।
स्वार्थ बन जाय पवित्रा प्रसून॥6॥
सफल होता है मानव-जन्म।
हाथ आ जाता है अपवर्ग
धर्म पर जब परमार्थ-निमित्त।
स्वार्थ हो जाता है उत्सर्ग॥7॥
स्वार्थ-परमार्थ-रहस्य विलोक।
विश्वहित से रख बहु अनुराग।
सदा जो किया जाय सविवेक।
है वही 'कृत्य' कर्म का त्याग॥8॥
(4)
अंधा नयनों में भर दे ज्योति।
बने अज्ञान-तिमिर आलोक।
भरित हो जहाँ मलिनता भूरि।
क उसको उज्ज्वलतम ओक॥1॥
तमोगुण से हो-हो अभिभूत।
तामसी रजनी का व्यापार।
जहाँ हो व्याप्त वहाँ बन भानु।
क निज प्रबल प्रभा-विस्तार॥2॥
जहाँ पर कूटनीति का जाल।
फैल करता हो अत्याचार।
वहाँ बन स्वयं न्याय की मूर्ति।
क उत्पीड़ित का उपकार॥3॥
कृपा-कर सदा पोंछता रहे।
व्यथित पीड़ित जन-लोचन-वारि।
क्लेश विकराल उरग के लिए।
सर्वदा बने सबल उरगारि॥4॥
दौड़कर पकड़े उनका हाथ।
बहाये जिनको संकट-स्रोत।
आपदा-वारिधिक-वारि-निमग्न।
भग्नउर के निमित्त हो पोत॥5॥
दीन का बंधु दुखी-अवलंब।
रंक का धन अनाथ का नाथ।
जाय बन निराधार-आधार।
पतित की गति प्यारे का पाथ॥6॥
किन्तु जो क, क सविवेक।
स्वार्थ तज धारण करके धर्म
जान कर्तव्य दिव्य रख दृष्टि।
समझकर मानवता का मर्म॥7॥
क क्यों कर्म-त्याग का गर्व।
दिखाकर नाना विषय-विराग।
कर्म का त्याग कर सका कौन।
त्याग है कर्र्म-फलों का त्याग॥8॥
(7)
कर्म-भोग
(1)
एक भ्रम है अज्ञान-प्रसूत।
बनाता रहता है जो भ्रान्त।
हुआ कर्तव्य-विमूढ़ सदैव।
लोक जिससे हो-हो आक्रान्त॥1॥
मनुज-उत्साह-कुरंग-निमित्त।
है परम जटिल वह महाजाल।
नहीं पाता विमुक्ति-पथ खोज।
बध्द जिसमें रह जो चिरकाल॥2॥
वह समुन्नति-सरि प्रबल प्रवाह।
निरोधाक है मरुधारा समान।
जहाँ होता है उसके सरस।
मनोहर जीवन का अवसान॥3॥
ओज-गिरि-शिखरों पर सब काल।
किया करता है वह पवि-पात।
श्रम-सदन पर गोलों के सदृश।
सदा पहुँचाता है आघात॥4॥
गि जिसमें प्रयत्न-मातंग।
विवश है बनता, है वह गत्ता।
पड़े जिसमें जन-साहस-पोत।
सदा डूबे, है वह आर्वत॥5॥
लोप होती है, उसमें देख।
वायु-सी दीपक-दीप्ति विरक्ति।
मनुज-जीवन-प्रदीप की ज्योति।
अलौकिक कार्यकारिणी शक्ति॥6॥
उस प्रभंजन का है वह वेग।
भरी जिसने विपत्तिक की गोद।
हुआ जिससे सर्वदा विपन्न।
सकल उद्योग-समूह पयोद॥7॥
पा सके पता नहीं बुधवृन्द।
बुध्दि की दूरबीन से देख।
थक गयी दृष्टि दिव्य से दिव्य।
न दिखलाया लिलार का लेख॥8॥