Last modified on 8 सितम्बर 2011, at 17:28

सिगरेट/ सजीव सारथी

Dr. ashok shukla (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:28, 8 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= सजीव सारथी |संग्रह=एक पल की उम्र लेकर / सजीव सार…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


तलब से बेकल लबों पर,
मैं रखता हूँ - सिगरेट,
और सुलगा लेता हूँ चिंगारी,
खींचता हूँ जब दम अंदर,
तो तिलमिला उठते हैं फेफडे,
और फुंकता है कलेजा,
मगर जब धकेलता हूँ बाहर,
निकोटिन का धुवाँ,
तो ढीली पड़ जाती है,
जेहन की उलझी, कसी नसें,
कुछ पल को.

धुवें के छल्ले जैसे,
कुछ दर्द भी बाँध ले जाते हैं,
साथ अपने
हर कश के साथ मैं पीता हूँ आग,
और जला देता हूँ,
जिंदगी के दूसरे सिरे से कुछ पल,
और निकाल लेता हूँ
अपना बदला - जिंदगी से,
एश ट्रे में मसलता हूँ
सिगरेट के "बट" को ऐसे,
जैसे किसी गम का सर कुचलता हूँ,
अजीब सा सकून मिलता है....

मगर जब देखता हूँ अगले ही पल
एश ट्रे से उठते धुवें को
तो सोचता हूँ,
जिंदगी –
 
इतनी बुरी भी नही है शायद ...