मैं अपनी चेतना के पाँव बाँधूँ
नज़र बाँधूँ तो फिर कि ठाँव बाँधूँ
यही मैं जेठ भर करता रहा हू~म
कहीं हो धूप तो मैं छाँव बाँधूँ
ठहरने ही नहीं देती शराफ़त
कोई अवसर नहीं जो दाँव बाँधूँ
कई टोलों कई वर्गों की बस्ती
कहाँ से एकता में गाँव बाँधूँ
मेरे जूते का फीता खुल गया है
मैं दो कश खींच कर फिर पाँव बाँधूँ