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जुगत / हरीश बी० शर्मा

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रोटी, कपड़ा और मकान से
काम नहीं चलता, चलती है जिंदगी
कुछ गलतफहमियों के शोकेस में।
खुशफहमियों के पीछे भागते।
कुछ सार्थक करने के लिए
निरर्थक करते रहना
पर्वतों-गुबंदो की ओर करके इशारे
खुद को मेहराब साबित करना
जीने के लिए ऐसा ही करना होता है
ढूंढ़ा जाता है निर्जिवों में सृजन का गुण
जीवों में सिढ़ियां, कि पैर रखकर चढ़ा जा सके
दूरियां तय की जा सकें
फासले कम किए जा सकें
रोटी, कपड़ा और मकान तो मिल जाते हैं
लेकिन इन्हें बचाने के लिए
गिरानी होती ही है सीढ़ी
आधे तक पहुंचते-पहुंचते दूसरे गिरा दें
वरना, पहुंचने के बाद आप गिरा दें।