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अभ्यसत / हरीश बी० शर्मा

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मेरा शहर और जिंदगी मेरी
परखनली में पलते शिशु जैसी।
पनवाड़ी की दुकान में सजी
सिगरेट की खाली डिब्बियों-सी
ठहाकों में खोखलापन
मस्तियां बेपेंदे के लोटे
हंसी बेलगाम
रोना बेहिसाब
मुंह फाड़े पसरी है तारकोली देह
निकलते रहते हैं कारों के काफिले
हिचकोले
भद्दी गाली
फरक किसे पड़ता है
देह अभ्यस्त जो हो गई है।