अपनी कृति ‘निर्ग्रन्थ’ पर भारतीय ज्ञानपीठ के मूर्तिदेवी पुरस्कार से सम्मानित श्री कन्हैयालाल सेठिया एक संवेदनशील व्यक्तित्व हैं। संसार में रहते हुए भी अध्यात्म-पथ के पथिक। मन प्राण में राष्ट्र बसा है तो हृदय में दर्शन। जन-जीवन और जग की व्यथा-कथा से अनुप्राणित उनकी अभिव्यक्तियाँ शब्दीयित होकर सृजनात्मक साहित्य के रूप में अभिव्यक्त हुई हैं। ‘अग्निवीणा’ में उनकी ओजपूर्ण वाणी ने राष्ट्र की शक्ति को जाग्रत किया है तो निर्ग्रन्थ’ में जीवन-दर्शन के पट खुले हैं। 33 रचनाओं की साहित्य-यात्रा के बाद उनकी नवीनतम कृति है—‘त्रयी’, जिसने वामन के पग की तरह अपने में समेट लिया है जीवन का अतीत, वर्तमान और भविष्य—सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम। और फिर सेठिया जी का वह समर्पण भी अद्भुत है—सन्त कबीर को, जो उनके मानस का ‘इष्ट’ है। वह निरक्षर होते हुए भी चिरन्तन अक्षर है, नीर-क्षीर का विवेकी है। वह लकीर का फ़कीर नहीं अपितु वर्गभेद से ऊपर एक सत्य है जो सबको प्रकाशिक करता है। सेठिया जी की परिकल्पना में ऐसा ही मानव-समाज बसता है जिसमें सिन्धु में बिन्दु की तरह समष्टि में व्यष्टि समाहित है।
‘त्रयी’ 163 कविताओं का संकलन है। जीवन-दर्शन को छूती ये कविताएँ नीर भरी बदली की तरह अर्थ से पूरित है। चिन्तन से प्रस्फुटित हर शब्द सार्थक है। अन्तः भाव प्रवाहित हुए हैं एक अजस्र रसधारा में। वेदना जब उत्ताल विशाल कल्पना-नभ में घन बनकर घुमड़ती है तो अनुभूति शिला की चोट खाकर आँखों की राह रघु प्रवालों के रूप में झर उठती है। ‘त्रयी’ की ये कविताएँ वही प्रवाल हैं, जिनमें जीवन का दर्शन और जग की व्यथा-कथा है। अनुभूति की अभिव्यक्ति एक महीन व्याख्या है—
चुनने दो
अभिव्यक्ति के लिए
अनुभूति को स्वयं शब्द
अन्यथा
कर देगा पाण्डित्य का दर्प
उस हृदय-जन्या सहज संवेदना को
छुईमुई।
‘एकता में अनेकता’ में कवि अतीत की धारा को तोड़कर वर्तमान को ‘सत्य’ करने के गुहार करता है। वह बन्धनमुक्त होना चाहता है, काल से समझौता करना चाहता है पर दुराग्रह से परे—
करना होगा
समय के साथ समझौता
व्यर्थ है
परम्पराओं की दुहाई
छोड़ना होगा दुराग्रह
करने होंगे
उसे नये संविधान पर
हस्ताक्षर
जिसमें दी गयी है
व्यक्ति को विचार की स्वतन्त्रता
पर नहीं थोप सकता वह
किसी अन्य पर अपना विचार
एकता में अनेकता
सृष्टि का मूलाधार
पुष्प अनेक किन्तु वाटिका एक। ‘सत्य’ में गिने-चुने शब्दों में पूरा जीवन-दर्शन झलकता है—
विग्रह का मूल
परिग्रह
हिंसा का मूल
आग्रह
आनन्द का मूल
निग्रह
जीवन को आनन्दमय बनाना है तो परिग्रह, आग्रह और निग्रह को जीवन-शैली बनाना होगा।
इसी प्रकार भौतिकवादी मानसिकता पर चोट करते हुए ‘बीज का गणित’ में सेठिया जी की दार्शनिकता इन शब्दों में अभिव्यक्त हुई है—
लगेंगे इस विटप में
कितने फल
यह बीज का गणित
करेगी प्रकृति
इसे फलित
नहीं कर सकता
विज्ञान
इस रहस्य को उद्घाटित
आध्यात्मिकता और भौतिकता का द्वन्द्व इसमें परिलक्षित है।
जीवन निरन्तर परिवर्तनशील है। स्थायित्व है कहाँ ? निशा के प्रथम प्रहर में खिलते पारिजात के पुष्प अपनी सुगन्ध बिखेर प्रातः झर जाते हैं। बस एक रात का जीवन। ऊषाकाल के सूर्य की लालिमा सायंकाल तक सुहावनी से प्रखर होकर अपने कितने रूप बदल क्षण-क्षण में होनेवाले परिवर्तन की द्योतक है। ‘हेमन्ती धूप’ में इसी परिवर्तनशीलता की बानगी देखिये—
लगती चाँदनी सी
सुहावनी
गुनगुनी हेमन्ती धूप।
उतरी तुहिन-स्नात
दूर्वा पर
ठिठुरते पनघट पर
कुनकुनी धूप
आयी दुपहरिया
हुई यौवना
कंचन वसना
बनी-ठनी धूप।
चली ढलते सूरज के साथ
समेट कर पल्लू
अनमनी धूप।
इस प्रकार कवि ने जीवन की चार अवस्थाओं को तदनरूप प्रतीकात्मक ढंग से रूपक में प्रस्तुत किया है। एक दार्शनिक ही ऐसे भावों को व्यक्त करता है सेठिया जी समस्त चराचर सृष्टि में एक ही परम सत्ता का अनुभव करते हैं। उनकी दृष्टि में सारा जगत उसी में समाहित है। संसार का सारा व्यापार उसी के इर्द-गिर्द घूम रहा है। यह सम्पूर्ण जगत उसी की छाया है। ‘अनहद’ में कवि भाव-विह्वल होकर पुकार रहा है।
जो अनन्त है
उसमें ही तो
सबका अन्त समाया,
जो अगेय है
उसको ही तो
सबने मिलकर गाया,
जो अदृश्य है
दृश्य स्वयं ही
उसकी है प्रतिछाया।
सारा संसार उसी अरूप, अनाम, विदेह से संचरित है। वह स्वयं ‘अनहद’ है किन्तु ‘अनहद’ में जो अनुनादित है वह और कुछ नहीं वह स्वयं ही है।
सेठिया जी की रचनाएँ साहित्य-प्रेमियों में अत्यन्त समादृत हैं। वे कोमल हैं, ओजस्वी हैं और दार्शनिकता से परिपूर्ण हैं। मैंने स्वयं जब ‘त्रयी’ को देखा-परखा तो लगा जैसे ‘‘मेरे अन्तः भावों की धारा, तोड़ चली मन की कारा’’।
इतनी सशक्त अभिव्यक्ति है सेठिया जी के काव्य में। वे न केवल साहित्य-जगत के सिरमौर हैं अपितु अपनी तेजस्विता से देशभक्ति में भी पीछे नहीं रहे। स्वतन्त्रता –संग्राम के इस सेनानी ने राजस्थान के गौरव को बढ़ाया है। काव्य के अनेक रसों का परिपाक हुआ है उसके जीवन में। मेरी मंगल कामना है कि वे शतायु हों, स्वस्थ रहें तथा अपनी सशक्त लेखनी से इसी प्रकार की धारा प्रवाहित करते रहें।
रमेश चन्द्र