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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - २

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किसका मंजुल मनोभाव है वह कल कुसुम खिलाता।
जिसके सौरभ से मन-उपवन है सुरभित हो जाता।
है किसकी अनुपम कृपालुता कल्पद्रुम की छाया।
पा जिसका अवलम्बन मानव ने वांछित फल पाया॥4॥

किसके अंकुश में मद-सा मदमत्त द्विरद दिखलाया।
किसे मोहती नहीं काम की महामोहिनी माया।
किसको ललना-लोल-नयन लालायित नहीं बनाता।
कुसुमायुधा के आयुधा को है कौन कुसुम कर पाता॥5॥

किसे लोभ की ललितभूत लहरें हैं नहीं नचाती।
किसके सम्मुख लोक-लालसाएँ हैं ललक न आती।
कामद सुखद वरद बहु रसमय परम मनोहर प्यारी।
है किसकी कमनीय कामना कामधेनु-सी न्यारी॥6॥

जो कोपानल मति-विलोप का साधन है हो पाता।
जिसका धूम विवेक-विलोचन को है अंधा बनाता।
जो अन्तस्तल को विदग्धा कर-कर है बहुत सताता।
वह आकर किसके समीप है तेज-पुंज बन जाता॥7॥

किसपर कभी मोह ने अपनी नहीं मोहनी डाली।
किसकी ममता गयी लोक-ममता-रंगत में ढाली।
किसके दिव्य दिवस हैं किसकी विभामयी हैं रातें।
परम पुनीत विभूति-भरित हैं चारु चरित की बातें॥8॥

(8)

मनुज-कुल मंजुल मानस-हंस।
मनुजता-कलिका कलित विकास।
सुरुचि-सरसी का सलिल ललाम।
कामना कान्त कमलिनी-वास॥1॥

कीत्तिक-कौमुदी कौमुदीनाथ।
सुकृति-सरिता का सरस प्रवाह।
ख्याति महिला का है सर्वस्व।
पूत जीवन पावन अवगाह॥2॥

वह मुकुर है वह जिसमें सांग।
हुए प्रतिबिम्बित शुचितम भाव।
कुजन-अय को करता है स्वर्ण।
डाल पारस-सा प्रमित प्रभाव॥3॥

बता पतितों को अपतन-मन्त्रा।
लाभ की उसने कीत्तिक महान।
कुमति को पढ़ा सुमति का पाठ।
अगति को करके प्रगति-प्रदान॥4॥

वह जलद है वह जिसका वारि।
हो सका हितकर सुधा-समान।
बन सके मरु-से जीवन-हीन।
कृपा से किसकी जीवनवान॥5॥

बो सके अवनी में वे बीज।
उसी के कर नितान्त कमनीय।
उगे जिससे वे पादप-पुंज।
बने जो सुरतरु-से महनीय॥6॥

मिले बल उसका बढ़ा समाज।
लाभ कर लोक-रंजिनी ख्याति।
हो गये ह-भ बहु वंश।
फली-फूली उससे सब जाति॥7॥

मनुज-जीवन होता है धान्य।
सफल बनते हैं सा यत्न।
हो सका महिमावान न कौन।
पा गये चारु चरित-सा रत्न॥8॥

मधुकर
(9)

भूलता भ्रमरी को कैसे।
भाँव क्यों भरता फिरता।
सुविकसित सुमन-समूहों पर।
मत्त बन-बनकर क्यों गिरता॥1॥

किसलिए काँटों से छिदता।
किसलिए तन की सुधा खोता।
कमल में कैसे बँधा जाता।
जो न मधुरत मधुकर होता॥2॥

सन्देश
(10)

भले ही हो मेरा मुख बन्द।
सजल दृग क्यों न सके अवलोक।
हाँ परम कुंठित है मम कंठ।
क्या नहीं मुखरित मानस ओक॥1॥

किसी अन्तर्दर्शी को छोड़।
कौन अन्तर-तर सका विलोक।
तिमिरमय हो सारा संसार।
कौन है सकल लोक-आलोक॥2॥

परम नीरव हो अन्तर्नाद।
किन्तु हैं अन्तर्यामी आप।
मुझे है इतना भी न विवेक।
पुण्य क्या है प्रभु क्या है पाप॥3॥

महा अद्भुत है विश्व-विधन।
बुध्दि क्यों उसमें क प्रवेश।
क्या कहूँ और कहूँ किस भाँति।
मौन ही है मेरा सन्देश॥4॥

भेद
(11)

भेद तब कैसे बतलायें।
भेद जब जान नहीं पाते।
फूल क्यों महँक-महँककर यों।
दूसरों को हैं महँकाते॥।1॥

किसलिए खिल-खिल हँसते हैं॥
किसलिए वे मुसकाते हैं।
देख करके किसकी रंगत।
फूल फूले न समाते हैं॥2॥