Last modified on 11 सितम्बर 2011, at 14:24

पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ५

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:24, 11 सितम्बर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ |संग्रह=पारिजात …)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

(19)

फूले-फले

बुरों से बुरा नहीं माना।
भले बन उनके किए भला।
हमारी छाया में रहकर।
चाल चलकर भी लोग पले॥1॥

पास आ क्यों कोई हो खड़ा।
हो गये हैं जब हम खोखले।
कहाँ थी पूछ हमारी नहीं।
कभी थे हम भी फूले-फले॥2॥

(20)

कलियाँ

बीच में ही जाती हैं लुट।
क्या उन्हें कोई समझाये।
कलेजा मुँह को आता है।
किसलिए सितम गये ढाये॥1॥

बुरी है दुनिया की रंगत।
किसलिए कोई घबराए।
क्या कहे बातें कलियों की।
फूल तो खिलने भी पाए॥2॥

(21)

फूल

रंग कब बिगड़ सका उनका।
रंग लाते दिखलाते हैं।
मस्त हैं सदा बने रहते।
उन्हें मुस्काते पाते हैं॥1॥
भले ही जियें एक ही दिन।
पर कहाँ वे घबराते हैं।
फूल हँसते ही रहते हैं।
खिला सब उनको पाते हैं॥2॥

(22)

विवशता

मल रहा है दिल मला क।
कुछ न होगा आँसू आये।
सब दिनों कौन रहा जीता।
सभी तो मरते दिखलाये॥1॥
हो रहेगा जो होना है।
टलेगी घड़ी न घबराये।
छूट जायेंगे बन्धान से।
मौत आती है तो आये॥2॥

(23)

प्यासी आँखें

कहें क्या बातें आँखों की।
चाल चलती हैं मनमानी।
सदा पानी में डूबी रह।
नहीं रख सकती हैं पानी॥1॥

लगन है रोग या जलन है।
किसी को कब यह बतलाया।
जल भरा रहता है उनमें।
पर उन्हें प्यारेसी ही पाया॥2॥

(24)

आँसू और आँखें

दिल मसलता ही रहता है।
सदा बेचैनी रहती है।
लाग में आ-आकर चाहत।
न जाने क्या-क्या कहती है॥1॥

कह सके यह कोई कैसे।
आग जी की बुझ जाती है।
कौन-सा रस पाती है जो।
आँख आँसू बरसाती है॥2॥

(25)

आँख का जलना

ललाई लपट हो गयी है।
चमक बन पाई चिनगारी।
आँच-सी है लगने लग गयी।
की गयी जो चोटें कारी॥1॥

फूलना-फलना औरों का।
चाहिए क्या इतना खलना।
बिना ही आग जल रही है।
आँख का देखो तो जलना॥2॥

(26)

आँख फूटना

और का देखकर भला होते।
है भलाई उमंग में आती।
है सुजनता बहुत सुखी होती।
रीझ है रंगते दिखा जाती॥1॥

जो न अनदेखपन बुरा होता।
किसलिए डाह कूटती छाती।
तो किसी नीच की बिना फूटे।
किसलिए आँख फूटने पाती॥2॥

(27)

आँख की चाल

लाल होती हैं लड़ती हैं।
चाल भी टेढ़ी चलती हैं।
बदलते भी उनको देखा।
बला लाती हैं, जलती हैं॥1॥

बिगड़ती-बनती रहती हैं।
उन्होंने खिंचवाई खालें।
भली हैं कभी नहीं आँखें।
देख ली हैं उनकी चालें॥2॥

(28)

आँख और अमृत

करें जो हँस-हँसकर बातें।
बिना ही कुछ बोले-चाले।
पिलायें प्यारे दिखाकर जो।
छलकते प्रिय छवि के प्यारेले॥1॥

बनी आँखें ही हैं ऐसी।
उरों में जो अमृत ढालें।
सदा जो ज्योति जगा करके।
ऍंधो में दीपक बालें॥2॥