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सपने / भारती पंडित

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उस दिन जब मैं पहली बार गया पाठशाला
और उस दिन जब मैंने सीखा ककहरा
ढेरों अधूरे सपने
धम से आ गिरे थे मेरी झोली में ..
दादा के सपने, दादी के सपने
माँ के सपने , पिताजी के सपने
वे सब मानो जोह रहे थे
मेरे बड़े होने की बाट,
कि उनके भी सपनों को
मिल जाये मंजिल...
आज उनके सपनों को जीता मैं
सोचता हूँ कि देख लूं
अपने भी कुछ सपने ,
और उन्हें पूरा भी
मैं ही कर डालूँ ..
डरता हूँ कि मेरे सपने कहीं
मेरे नन्हें की आँखों में घर न बना ले ...