बेसुध सो रही अल्हड़ पहाड़ी
उघड़ी जाँघ-सी
दिप-दिप रही है नदी
मंत्रविद्ध-सा अवश बादल
खिंचा आता है।
पहाड़ी सुगबुगाती
जाग आती
लिपट जाती
भींच लेती है
रोम-रोम में कस गया
बस गया
है बादल !
(1980)
बेसुध सो रही अल्हड़ पहाड़ी
उघड़ी जाँघ-सी
दिप-दिप रही है नदी
मंत्रविद्ध-सा अवश बादल
खिंचा आता है।
पहाड़ी सुगबुगाती
जाग आती
लिपट जाती
भींच लेती है
रोम-रोम में कस गया
बस गया
है बादल !
(1980)