सागर
रेत का यह तपता हुआ
पसरा है असीम।
वह कहाँ है जल
सींचता उस एक
हरियल छाँह को
जो तुम्हारी देह-सी
छायी है मुझ पर।
या कि मेरी आत्मा ही बावली है
मेरे अछोर तक पसरे
तपते हुए मरूथल में
सींचती वह गाछ
जो तुम हो।
(1980)
सागर
रेत का यह तपता हुआ
पसरा है असीम।
वह कहाँ है जल
सींचता उस एक
हरियल छाँह को
जो तुम्हारी देह-सी
छायी है मुझ पर।
या कि मेरी आत्मा ही बावली है
मेरे अछोर तक पसरे
तपते हुए मरूथल में
सींचती वह गाछ
जो तुम हो।
(1980)