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दुख / मधु शर्मा

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एक व्यर्थ होता दुख

एक हाय-हाय फँसी हुई दिल में

मृत्यु के नाख़ून गड़ते हैं

कहीं चुभती फाँस तीखी


जीवन मुझे भूला नहीं है

वह अवकाश में है

कहता--

लो, भरो मुझे

जैसे मैं

भरता हूँ दुख को ।