Last modified on 11 सितम्बर 2007, at 00:11

शेष / मधु शर्मा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:11, 11 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधु शर्मा |संग्रह=जहाँ रात गिरती है }} प्रेम ने तबाह किय...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रेम ने तबाह किया

तबाही में बची रहीं

प्रेम की स्मृतियाँ


नींद झरती रही

अंधकार से

जहाँ सोना नहीं था जाग कर

भीतर बसते रहे तलछट

थे पानियों की तह में


सिर्फ़ पानी ही बचा

हर तबाही में

प्रेम के साथ ।