Last modified on 7 अक्टूबर 2011, at 04:34

टूट-फुट / निशान्त

Neeraj Daiya (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 04:34, 7 अक्टूबर 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निशान्त |संग्रह= }} {{KKCatKavita‎}}<poem>काम चाहे कितना ही पक…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

काम चाहे
कितना ही पक्का
पुख्ता हो
बिगाड़ आ ही
जाता है उसमें
निभाता नहीं वह
उम्र भर साथ
मसलन
घिस जाते हैं
मैन गेट के
‘गेटवाल’
गल जाती है
बिजली की तारें
उखड़ जाता है
पलस्तर
यहां तक कि
अच्छे खासे
रिश्तों में भी
आ जाती है
दरार
कुछ भी नहीं होता
ऐसा
जो हमें कर दे
पूर्ण निश्चिंत