Last modified on 11 अक्टूबर 2011, at 16:33

आहटें / मधुप मोहता

आशिष पुरोहित (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:33, 11 अक्टूबर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=मधुप मोहता |संग्रह=समय, सपना और तुम ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


मैंने सोचा कि लो आप आ ही गए,
ऐसे रूक-रूक के आती रहीं आहटें।
आप आते न आते सहर आ गई,
रात भर हम बदलते रहे करवटें।

जाम-ओ-मीना में बस तिश्नगी रह गई,
लाल आंखों में बाकी रहीं हसरतें।
दिल के हिस्से में आई कुछ इक तल्ख़ियां,
और बिस्तर में बाकी रही सलवटें।