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सुबह / मधुप मोहता

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मैं तुम्हें सोचता हूं,
अनगिनत और बातें
जिन्हें
तय करती है ज़िदगी
एक महासागर की उस मदहोश
शाम की गुमनामी के नाम
जिसकी उदास हवा में
तुम्हारे गीत
दम तोड़ते हैं एक के बाद एक,
ख़ामोशी में।

यादें
लाल गुलाबों की, और
गर्मियों की तन्हा रात की किसी धुन की
उस ख़ूबसूरत चांद की, और
उन तमाम ख़ूबसूरत चांद की, और
तुम और मैं
बेवजह ताकते
रोशनियों की
जगमगाहट को।
शब्द, जो कभी मैंने
तुम्हारे कानों में हौले से कहे थे, बेतहाशा,
लहराकर, बेफिक्र मस्त लम्हों में
एक नज़्म बन जाते हैं
दूर से चलकर आती आवाज़ें चुपचाप
किसी नई सुबह के सपने में
ढल जाती हैं।

मेरे पांव धंसते हैं धीरे-धीरे,
समय में,
हौले-हौले बरसते हैं,
नादान लम्हें
एक अनूठे नृत्य में
मैं भुला देता हूं, सभी शाश्वत सत्य
एक पल की समाधि में।

कहीं, सुना है मैंने,
अंतिम सांस तक निभनेवाले
प्रेम के विषय में,
भोले-भाले गीत भी सुने हैं, कई बार
मैंने पढ़ी है,
असमंजस की ख़मोशी के घर लौटने
की प्रतीक्षा में व्यग्र आंखों में थमी
नाराज़गी
जब मैं तुम्हें सोचता हूं,
अनगिनत और बातों को,
चांदनी मुझे अपनी गोद में समेट
नाराज़गी।
जब मैं तुम्हें सोचता हूं,
अनगिनत और बातों को,
चांदनी मुझे अपनी गोद में समेट लेती है,
मैं आंखें बंद कर लेता हूं
ख़ुद को भूलने के लिए, और
शहर में लगातार चलती रहती हैं,
हलचलें।