कुछ ही दिन हुए
अभिन्न और
अपनापे से भरी
गहरी
निर्मल नदी ने
हाथ खींच लिया
देखने से भी
मना कर दिया
अपनी दो आँखें मींच लीं
मिनट भर में सूख गया
सब का सब
जीवन का राग
सब थरथरा गए
थरथराते रहे
यहाँ से वहाँ तक
कैसे और
कहाँ-कहाँ तक ?
अभी भी सूखी सतह
थरथराती है
बसी रहती है थरथराहट
वह कहीं नहीं दिखती !