लाशों की चर्चा थी, अथवा सन्नाटा था
राज्यपाल ने दावत दी थी, हा हा ही ही,
चहल-पहल थी, सागर और ज्वार-भाटा था ।
जो सुनता था वही थूकता था, "यह। छी-छी ।
यह क्या रंग-ढंग है। मानवता थोड़ी सी
आज दिखा दी होती ।" "वे साहित्यकार हैं",
कहा किसी ने । औरत बोली झल्लाई सी-
"बादर होइँ, पहाड़ होइँ, आपन कपार हैं ।"
पति ने कहा, "होश में बोलो ।" "धुआँधार हैं
उन के भाषण संस्कृति पर ।" "कोई तो स्याही
जा कर मुँह पर मल देता ।" "ये भूमिहार हैं..."
"कर की कालिख़ आप पोत ली है मनचाही ।"
भय का कंपन आज वायु में भरा-भरा था,
छाती पर जो घाव लगा था, हरा-हरा था।