Last modified on 25 अक्टूबर 2011, at 12:18

रुपया / विश्वनाथप्रसाद तिवारी

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:18, 25 अक्टूबर 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

ओ काग़ज़ के गंदे टुकड़े
उठो
शैतान तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं
उठो और चल पड़ो

चल पड़ो
हवा में मूँछें लहराते
सीना ताने
किसी भी बँगले का
कोई भी प्रहरी
तुम्हें रोक नहीं सकता

तुम ब्रह्मास्त्र हो अमोघ
कवच कुण्डल हो अवेध्य
कोई भी शस्त्र नहीं छेद सकता तुम्हें
जला नहीं सकती कोई भी आग
कोई भी जल नहीं गला सकता तुम्हें
सुखा नहीं सकती कोई भी वायु

ओ महासमर के
एकमात्र बच गए योद्धा

चल पड़ो तुम
धरती को कुचलते
और दिशाओं को कँपाते हुए

जिधर भी बढ़ोगे
वहीं बन जाएगा स्वर्ग पथ
उसी पर उतरेंगे धर्मराज
तुम्हारे स्वागत के लिए ।