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ख़तरा / पद्मजा शर्मा

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कहते हैं
बहुत हुआ अब
लिखना-पढ़ना छोड़ दो
पन्ने जला दो
कलम तोड़ दो
घर के किसी आले-कोने-मेज़-दराज़ में
दिख गई कोई कविता, कहानी की पुस्तक
तो जला दी जाएगी
लिखते पढ़ते पाई गई
तो आरी चला दी जाएगी
इजाज़त हो तो हँसो
रूलाएँ तो रो लो
ज्य़ादा ‘अपनी’ बात की तो
जड़ों समेत उखाड़ दी जाओगी
कहीं ठौर तक नहीं पाओगी

उनका हर कहा करती हूँ
पर हर रोज़-कतरा-कतरा मरती हूँ
सोचती हूँ, मौत से पहले ही
ठीक से मर जाऊँ
अपनी मर्ज़ी का
दूसरा जीवन जल्दी पाऊँ
कम से कम इस जीवन से तो भर पाऊँ
नहीं लिखा तो मर जाऊँगी
और लिखा तो मार दी जाऊँगी
मौत का आसन्न ख़तरा मंडरा रहा है
ख़ुद का ख़ुद से संवाद नहीं
मन की कोई बात नहीं

क्यों न अपनी शर्तों पर
जितना जैसा भी है जीवन, जिया जाये
अंतिम इच्छा मानकर
हर शुभ काम किया जाये।