मैं रो पड़ती हूँ अक्सर तक
जब लगने लगता है
कि हो रही हूँ मज़बूत
आँखों में आँसू आ जाते हैं
पूरे अस्तित्व पर छा जाते हैं
मैं डूबती जाती हूँ
वे बहते हैं देर तक
और उनमें दूर तक मैं
वे बरसते रहते हैं
मेरे मन की माटी भीगती रहती है
वे याद दिलाते रहते हैं
कितनी बातें मान की, अपमान की
खोते अस्तित्व की, स्वाभिमान की
मैं सुनती रहती हूँ चुपचाप
और फिर धीरे-धीरे सूख जाते हैं
या कि मैं पोंछ लेती हूँ
आँसू
तब लगता है, बादल छंट गए
मन के कोने-अंतरों से सारे जाले जैसे हट गए
अब मैं पहले से अधिक हो गयी हूँ
ऊर्जावान-सृजनशील-संवेदनशील
कुछ-कुछ निथरी-सी
दुनिया की चुनौतियों का सामना
करने का तैयार-तत्पर
उठ खड़ी होती हूँ मुक्त मन से
इस विश्वास के साथ चल पड़ती हूँ
कि मुश्किलों के बियाबान जंगल
कठिनाइयों के पहाड़,घाटियाँ
असंभव से लगने वाले अँधेरे
ऊबड़-खाबड़ रास्ते पार कर लूंगी
मंज़िल पा लूंगी
आँसू औरत की ताकत बनते हैं कि
उसे कमज़ोर बनाते हैं
यह तो नहीं पता
पर यह सत्य है कि उसे
एक बेहतर इन्सान जरूर बनाते हैं
आँसू
इसलिए जीवन में इनकी हर अदा मुझे सुहाती है
आँसुओं पर मुझे अब
पहले की तरह शर्म भी नहीं आती है।