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अभिमत/कवर टिप्पणी

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  हिन्दी ग़ज़ल और गीत के क्षेत्र में युवा कवि वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ का नाम बहुत जाना पहचाना है । बुन्देलखण्ड में दूसरे दुष्यन्त कुमार कहे जाने वाले ‘अकेला’ ने अपनी मूल छवि के अनुरूप आम लोगों के दुख-दर्दों को समर्थ वाणी देने वाली हिन्दी ग़ज़लें कह कर दुष्यन्त कुमार की ग़ज़ल परम्परा को तो आगे बढ़ाया ही है साथ ही उन्होंने पारम्परिक हिन्दी गीत विधा को कथ्य और शिल्प की दृष्टि से एक नवीन सर्वग्राही रूप प्रदान करने का सराहनीय कार्य भी किया है । ‘अकेला’ की यह दूसरी कृति उनकी साहित्यिक प्रतिष्ठा को और पुख़्तगी देगी, ऐसा मेरा विश्वास है ।

-डॉ. गंगा प्रसाद बरसैंया

वीरेन्द्र खरे ‘अकेला’ वह सशक्त कवि हैं जिनकी कविताओं में जीवन की सच्ची-तपती-सुलगती आग पूरी तेजस्विता के साथ विद्यमान है । वे भाषा के ऐसे योद्धा व क़लम-शस्त्रधारी हैं जो समाज में व्याप्त दुःख-दर्दों, अभावों, असफलताओं को अनूठे अंदाज़ में पेश कर अपने पाठकों में विपरीत परिस्थितियों से लड़ने का हौसला भरते हैं । उनकी ग़ज़लों में नंगा यथार्थ कलात्मक ढंग से अद्भुत सौन्दर्य पा गया है । उनका यह मानना है कि ‘हाथ का मैल ही सही पैसा, सारी दुनिया ग़ुलाम है कि नहीं’ सच बयानी का अद्वितीय उद्धरण है । पूँजीवादी समाज में ग़रीबों के आँसुओं को बवाल समझा जाना, भूखों को बातों से बहलाना शोषकों के शग़ल हैं जिन्हें ‘अकेला’ ने बेनकाब किया है । इनकी कविता आम आदमी के जीवन की कविता है ।

-डॉ. बहादुर सिंह परमार