शिशिर मे ससि को, सरुप पवै सबिताऊ
घाम हू मे चांदनी की दुति दमकति है ।
"सेनापति” होत सीतलता है सहस गुनी,
रजनी की झाई, वासर मे झलकती है ।
चाहत चकोर,सुर ओर द्रग छोर करि,
चकवा की छाती तजि धीर धसकति है।
चन्द के भरम होत मोद हे कुमोदिनी को,
ससि संक पंकजिनी फुलि न सकति है।