"खँडहरों सी भावशून्य आँखें
नभ से किसी नियंता की बाट जोहती हैं।
बीमार बच्चों से सपने उचाट हैं;
टूटी हुई जिंदगी
आँगन में दीवार से पीठ लगाए खड़ी है;
कटी हुई पतंगों से हम सब
छत की मुँडेरों पर पड़े हैं।"
बस! बस!! बहुत सुन लिया है।
नया नहीं है ये सब मैंने भी किया है।
अब वे दिन चले गए,
बालबुद्धि के वे कच्चे दिन भले गए।
आज हँसी आती है!
व्यक्ति को आँखों में
क़ैद कर लेने की आदत पर,
रूप को बाहों में भर लेने की कल्पना पर,
हँसने-रोने की बातों पर,
पिछली बातों पर,
आज हँसी आती है!
तुम सबकी ऐसी बातें सुनने पर
रुई के तकियों में सिर धुनने पर,
अपने हृदयों को भग्न घोषित कर देने की आदत पर,
गीतों से कापियाँ भर देने की आदत पर,
आज हँसी आती है!
इस सबसे दर्द अगर मिटता
तो रुई का भाव तेज हो जाता।
तकियों के गिलाफ़ों को कपड़े नहीं मिलते।
भग्न हृदयों की दवा दर्जी सिलते।
गीतों से गलियाँ ठस जातीं।
लेकिन,
कहाँ वह उदासी अभी मिट पाई!
गलियों में सूनापन अब भी पहरा देता है,
पर अभी वह घड़ी कहाँ आई!
चाँद को देखकर काँपो
तारों से घबराओ
भला कहीं यूँ भी दर्द घटता है!