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स्वाभिमान / नरेन्द्र शर्मा

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स्वाभिमान से जीना जग में
बहुत कठिन है, अंतर्यामी!
स्वाभिमान धन, दास-दस्यु का
जीवन ऋण है, अंतर्यामी!

स्वार्थी की मुट्ठियाँ बंद हैं,
याचक की चित पड़ी हथेली,
जीवन नहीं संत की कुटिया
या दाता की बड़ी हवेली;
लेना बहुत, न देना कुछ भी—
दृष्टि मलिन है, अंतर्यामी!

जो सर्वस्व न्यास कर देता,
देता है केवल सन्यासी।
हृदय कृपण, कर तस्कर जिसके,
केवल लेने का अभ्यासी!
उपजीवी जीवन से मुझको
कितनी घिन है अंतर्यामी!

घटता कालांतर देशांतर,
बढ़ती व्यक्ति व्यक्ति की दूरी,
हेतु-सेतु मिट रहे पुरातन,
नए न बनने की मजबूरी,
टूट गए तटबंध, खिन्न मन
ध्वस्त पुलिन है, अंतर्यामी!

हृदय बंद पानी की पोखर,
जल पर जमी पर्त काई की,
तल में पंक, पंक में डूबी—
परिचित परिमित गहराई की,
ज्योति-स्नान के बिना हृदय-दृग
म्लान नलिन है, अंतर्यामी!

आत्म-दान-दाक्षिण्य-शिखरिणी,
प्रेम-वारि-परिपूर्णा सरिता,
सद्य-सदानीरा वर वाणी—
मर्यादित स्वच्छंद सुचरिता,
सरस्वती सूखी, कविता का
यह दुर्दिन है, अंतर्यामी!