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एकाकी मन / नरेन्द्र शर्मा

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लाखों की भीड़ और एकाकी मन!
बाहर कुछ, भीतर कुछ मेरा जीवन!

सामाजिक प्राणी हूँ, प्रिय मुझे समाज,
रास नहीं आता पर अनरथ का राज।
पुण्य में प्रमाद, पाप सक्रिय प्रतिक्षण!

आपे से बाहर सब, मची रेल पेल,
ऊँची हर नाक, मगर नाक में नकेल।
स्वार्थ कड़क कहता है, अति स्वार्थी बन!

होता है कुशाघात अवसर के हाथ,
चूक चूक जाता हूँ—अविनत है माथ।
क्यों न कहा—चूक क्षमा, स्वार्थी श्रीमन!

हाथ कही, माथ कही, उदर हृदय भिन्न!
ताना कुछ, बाना कुछ, तार तार छिन्न!
नव न बुना, पहले की उघड़ी सीवन!

जीवन जीवनोपाय, दोनों दो तीर,
उलट-पलट बहती है धार हो अधीर!
आत्मा मन को कहती बारा-बीरन!

जीवन-रस अनरस है, शांति बनी क्षोभ,
जीता हूँ, क्योंकि मुझे जीने का लोभ!
बहुतों का अनुगामी एकाकीपन!

जिजीविषा सीमित है जीने तक आज,
विवश जिए जाने पर आती है लाज!
बेमन जो जिए न, हैं ऐसे भी जन?