Last modified on 20 सितम्बर 2007, at 23:41

विरह / जयशंकर प्रसाद

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:41, 20 सितम्बर 2007 का अवतरण (New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जयशंकर प्रसाद }} प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते ये न...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रियजन दृग-सीमा से जभी दूर होते

ये नयन-वियोगी रक्त के अश्रु रोते

सहचर-सुखक्रीड़ा नेत्र के सामने भी

प्रति क्षण लगती है नाचने चित्त में भी


प्रिय, पदरज मेघाच्छन्न जो हो रहा हो

यह हृदय तुम्हारा विश्व को खो रहा हो

स्मृति-सुख चपला की क्या छटा देखते हो

अविरल जलधारा अश्रु में भींगते हो


हृदय द्रवित होता ध्यान में भूत ही के

सब सबल हुए से दीखते भाव जी के

प्रति क्षण मिलते है जो अतीताब्धि ही में

गत निधि फिर आती पूर्ण की लब्धि ही में


यह सब फिर क्या है, ध्यान से देखिये तो

यह विरह पुराना हो रहा जाँचिये तो

हम अलग हुए है पूर्ण से व्यक्त होके

वह स्मृति जगती है प्रेम की नींद सोके