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संसार-दर्पण / रामनरेश त्रिपाठी

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आदमी ने एक बनवाया महल था शानदार।
काँच अंदर की तरफ उसमें जड़े थे बेशुमार॥
एक कुत्ता जा फँसा उसमें अचानक एक बार।
देखते ही सैकड़ों कुत्ते हुआ वह बेकरार॥
वह समझता था उसे वे घूरते हैं घेरकर।
क्योंकि खुद था देखता आँखें तरेर-तरेरकर॥
वह न था कमजोर दिल का बल्कि रखता था दिमाग।
छू गया जैसे किसी के फूस के घर में चिराग॥
वह उठा झुँझला, उधर भी सैकड़ों झुँझला उठे।
मुँह खुला उसका, उधर भी सैकड़ों मुँह बा उठे॥
त्योरियाँ उसकी चढ़ी, तो सैकड़ों की चढ़ गईं।
एक की गरदन बढ़ी, तो सैकड़ों की बढ़ गईं॥
भूँकने जब वह लगा, देने लगा गुंबद जवाब।
ठीक आमद खर्च का मिलने लगा उसको जवाब॥
वह समझता ही रहा, सब दुश्मनों की चाल है।
पर नहीं वह जानता था, सब उसी का हाल है॥
भूँकता ही वह रहा जब तक कि उसमें जान थी।
महल की दुनिया उसी की नकल पर हैरान थी॥
ठीक शीशे की तरह तुम देख लो संसार है।
नेक है वह नेक को बद के लिए बदकार है॥
तुम अगर सूरत बिगाड़ोगे, तो शीशे में वही,
देखनी तुमको पड़ेगी, बात है बिल्कुल सही॥