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उत्तीर्ण / पीयूष दईया

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जहां मादरजात काल्पनिक में यूं झांक लेता जैसे वह कांच से बना हो।

नामतः। वाणी के नीवरण। दाग़ डालनेवाले। कभी अन्तरंग में वाचाल , कभी चुप्पे। अन्तरालों में प्रस्तुत सम्बोधी का कायाकल्प करते। उसे संदिग्ध बना देते , जन्मजात। बांस की खाली पोंगरी सा शरीर न कोयला हो पाता न राख। ख़ून जलाकर गलेपड़ी अधजली लकड़ी सा धुआंता रहता। न जलना जान पाता न बुझ पाता। मसानी तासीरतपा इंतज़ार में रहता।

फटेहाल माथा क़िल्लती क़िले में कुकुरमुत्तों सा मज़ाक़ लगता तो शर्म के मारे भाग पड़ता।
पांव पालने से बाहर पड़ते।

रहते न रहते।

विरल से विरत, विचित्र से मोहग्रस्त।
बहुत दूर देखता, बहुत पास देखता। पूर्वापर। सिफ़रसफ़रसिफ़त। सिराते-सिराते , निश्चिह्न पर नहीं।

जिसके बीच कुछ नहीं रहता जैसे कि पोळापन माटी-मटके का।
जहां वह अब भी वैसा ही बना रहता, पहले जैसा। एक सन्तरण नियन्ता जिसे कभी शब्द जी नहीं पाते पर उस पर मातम मनाते लगते। इतने सत्यापित कि काल्पनिक लगते।

यह सत्य का स्वदेश होता जिसका कोई अर्थ नहीं निकल पाता।

जैसे हिजड़े जिनके पूर्वज तो होते, वंशज नहीं। अकेले से बने और डरावने। जैसे उसके शब्द जिनमें जातक के बाद न कोई है न कभी हो सकेगा , पहले वालों का कौन जाने। न रोशनी उन्हें गर्भित कर पाती न कोई गोद ले पाता। वे हिजड़े प्राणियों से बने रहते। सबसे अकेले, लीनवेत्ता।

स्वप्न-पात्र से अभिनीत। स्वरसेंध से स्तम्भित।
आंसुओं के जीवाश्म छोड़े बिना।
शून्यशील में संख्य सखियों जैसे संखिया संशय कल्लोल करते लगते पर लपकता लहजा भाड़ में अन्ततः चला जाता खरामा खरामा, टर्र टर्र भोंदुई-सा फिसड्डी बने। जानता होता कि पानी मर गया है।

उत्तीर्ण का।