भोर की
प्रथम किरण
फीकी :
अनजाने
जागी हो
याद
किसी की--
अपनी
मीठी
नीकी !
धीरे-धीरे
उदित
रवि का
ल्लाल-लाल
गोला
चौंक कहीं पर
छिपा
मुदित
बन-पाखी
बोला
दिन है
जब है
यह बहु-जन की :
प्रणति
लाल रवि
ओ जन-जीवन
लो यह
मेरी
सकल साधना
तन की
मन की--
वह बन-पाखी
जाने गरिमा
महिमा
मेरे छोटे
चेतन
छन की !