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दफ़्तर के बाद-२ / रमेश रंजक

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रात आधी हो गई है
दिवस दूना
नींद पूरी भर नहीं पाती
धूप गुब्बारे सरीखी
फैलती जाती ।
रात आधी...

कुहनियों के काँपते समकोण पर
पत्थर टिकाए
एक लघु छैनी निरन्तर छाँटती है
अधगढ़ी मूरत लिए घर लौटती
करवट बदल कर छाँह
पीड़ा झाँकती है

फूटते ही पसलियों का दर्द
छलनी हो गई छाती
नींद पूरी भर नहीं पाती
रात आधी हो गई है
दिवस दूना ।