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लन्दन डायरी-8 / नीलाभ

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मैं जानता हूँ
अब गाने के लिए
स्वर साधते ही
मेरा कण्ठ भरभरा आता है
ख़ामोशी रेंगती है दिमाग़ पर
जैसे निर्जन प्राचीरों पर जहरीली बेल
मैं अपनी ही छाया से कतराता हुआ
अँधेरे गलियारों में
बीते हुए सूर्यों के बारे में
सोचता हुआ
दुबका फिरता हूँ

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
जा रही हैं। धीरे-धीरे

गर्मियाँ फिर बीत रही हैं
फिर से बादल घिरने लगे हैं

रंगों को खुले हाथ छितराते हुए
आकाश फूट पड़ता है
संगीत में
यहाँ एक अजनबी देश में
दूसरे शहर में
अनजान या उदासीन लोगों के बीच
सिर्फ़ उदासी बच रहती है
किसी राग की तरह
ख़ामोशी पर तिरती हुई
अनन्त इकाई की तरह
गीत की धुन में
सदा उपस्थित सुर की तरह
आह, मेरे जीवन के ग्रीष्म
तुम भी तो गुज़रते जा रहे हो
नष्ट होते आवेगों के पागलपन में
थके हुए एहसासों के शून्य में
साथी-संगियों की विफल तलाश में

ज़ाया होते हुए एक अनजाने देश में
जिसके तरीक़े अलग हैं
जिसके लोग अलग हैं