Last modified on 19 दिसम्बर 2011, at 15:23

लन्दन डायरी-1 / नीलाभ

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:23, 19 दिसम्बर 2011 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नीलाभ |संग्रह=चीज़ें उपस्थित हैं / ...' के साथ नया पन्ना बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

चारों ओर लम्बे वीक-एण्ड की ख़ामोशी है
ख़ामोशी और अकेलापन
जिसे बार-बार बजाये गये
नज़रुल के गीत भी
ख़त्म नहीं कर पाये हैं
पहले से ज़्यादा गझिन बना कर
मेरे गिर्द जाल की तरह
लपेट गये हैं

मैं कहाँ हूँ ? किस कगार पर ?
टूटते हुए रिश्तों की किस दरार पर ?

बाहर झाँकता हूँ मैं
105 नम्बर की बस
हीथरो हवाई अड्डे से
शेपर्ड्स बुश ग्रीन की तरफ़
जाती हुई
नुक्कड़ पर ठिठकती है

बाहर अगस्त है
चितकबरे बादलों में
झिलमिलाती है धूप की धारा
ऊँघते चिनारों के
हरे-हरे हाथ हिलते हैं
नुक्कड़ की पब से उभरते
शराबी शोर में
रेग्गे और डिस्को और
कीर्तन के स्वर
घुलते-मिलते हैं

मुझे उठ कर
इस कमरे से
बाहर जाना चाहिए