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सीमा / जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद'

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क्या असीम होने का सुख था?
भार मुझे विस्तार हुआ।
घड़ियाँ गिन-गिन कर, एकाकी
जीवन थका, असार हुआ।
समझा नहीं किसी ने ‘अपना’, सबके लिए ‘पराया’ था;
मुझ ‘महान’ को अखिल विश्व की लघुता ने ठुकराया था।

सहज-सजीले इंद्रधनुष-सी
शून्य असीम गगन में,
सहसा उदित हुईं तुम मेरे
इस सूने जीवन में।
मेरी ओर मुड़ीं पल में तब जग की आँखें सारी;
सुंदरि, सतरंगी सीमा थी कितनी सरस तुम्हारी!