निशि-सुंदरी करेगी नभ में
मंद-मंद जब मादक नर्तन,
सत्वर मंथर चरण-ताल पर
टूट पडूँगा मैं तारा बन।
किरणों के चुंबन को बढ़ते-
बढ़ते राका-शशि की ओर,
महासिंधु में सो जाऊँगा
बनकर आकुल एक हिलोर।
जब जीवन के महागान की
मधुर तान टूटेगी क्षण-भर,
शून्य गगन में मिल जाऊँगा
शीघ्र प्रलय की ‘लय’ में मिलकर।
हाथ उठा सर की लहरों से
मृत्यु करेगी जब आह्वान,
लघु जलकण बन शतदल-जग से
ढलक पडूँगा मैं अनजान।