है उषा रँगोली, किंतु, सजनि, उसमें वह स्थिर अनुराग नहीं;
निर्झर में अक्षय स्वर-प्रवाह है, पर, वह विकल विहाग नहीं।
ज्योत्स्ना में उज्ज्वलता है, पर, वह प्राणों की मुस्कान नहीं;
फूलों में हैं वे अधर, किंतु, उनमें वह मादक गान नहीं।
तुम में जग पाया था मैंने, जग में अब तुम्हें न पाता हूँ;
इस असमंजस में मैं वियोग की घड़ियाँ, देवि, बिताता हूँ।
साधक पाते हैं व्रत-साधन में जिसे समझ आराध्य, प्रिये,
जो ज्ञान-ध्यान का गहन तत्व, जो विज्ञों का है साध्य, प्रिये,
जो ‘सत्य’ और ‘शिव’ ऋषियों का, युग-युग का है अभिमान, प्रिये,
नयनों में, उर में रखा उसे मैंने तो ‘सुंदर’ मान, प्रिये।
उस रात, तुम्हारे वंशी-रव ने नभ में जो खींची रेखा,
उसके छवि-अंकन में ‘अनंत’ को सर्व-प्रथम मैंने देखा।